2122 2122 212
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मयकदे को अब शिवाले बिक गये
रहजनों के हाथ ताले बिक गये
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घर जलाना भी हमारा व्यर्थ अब
रात के हाथों उजाले बिक गये
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जो खबर थी अनछपी ही रह गयी
चुटकले बनकर मशाले बिक गये
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न्याय फिर बैसाखियों पर आ गया
जांच के जब यार आले बिक गये
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दुश्मनों की अब जरूरत क्या रही
दोस्ती के फिर से पाले बिक गये
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सोचते थे नींव जिनको गाँव की
वो शहर में बनके माले बिक गये
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आ० वेदिका जी , ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक बधाई .आपने सही फ़रमाया कि जरूरत मीडिया के रवैये पैट भी चोट करने कि जरूरत है . प्रयास करूंगा कि इस पर कोई सार्थक ग़ज़ल पेस हो और आपकी उम्मीदों पर लेखनी खरी उतरे .शुभ शुभ ....
आदरणीय भाई गिरिराज जी, गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार ।
आदरणीय भाई सौरभ जी, उत्साह वर्धन करने के लिए हार्दिक धन्यवाद स्नेह बनाए रखें । शुभ शुभ.....
भाई रामअवध जी गजल की प्रशंसा के लिए आभार ।
आदरणीय भाई जितेंद्र जी, गजल की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई नरेंद्र सिह जी, गजल की प्रशंसा के लिए आभार ।
आदरणीय भाई आशुतोष जी, आपको गजल की गेयता पसंद आयी यह मेरे लिए हर्ष का विषय है । प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई गोपालनारायन जी ,गजल का अनुमोदन करने के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है , आदरणीय लक्ष्मण भाई , आपको दिली बधाइयाँ |
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