पुण्य-तिथि
(२७ वर्ष उपरान्त भी लगता है ... माँ अभी गई हैं, अभी लौट आएँगी)
माँ ...
रा्तों में उलझे ख्यालों के भंवर में, या
रंगीले रहस्यमय रेखाचित्रों की ओट में
कभी चुप-सी चाँदनी की किरणों में
श्रद्धा के द्वार पर धुली आकृतिओं में
सरल निडर असीम आत्मीय आकृति
माँ की खिलखिलाती मुसकाती छवि
समृतिओं के दरख़तों की सुकुमार छायाएँ
स्नेह की धूप का उष्मापूरित चुम्बन
मेरे कंधे पर तुम्हारा स्नेहिल हाथ
कितनी बार जा चुका हूँ माँ
तुम्हारे साथ इस लोक से परलोक
लौट आया हूँ परलोक से इस लोक
मेरे जीवन के अन्धेरों में घुल-घुल
कभी खुशिओं की रोशनी से मिल-जुल
ले जाती रही हो तुम मुझको अविरल
संभ्रांति और दुष्ट स्वभावों से दूर
असीम समस्याओं की सरहदों के पार
सत्य से एक और प्रखर सत्य की ओर
पर लगता है आज अचानक दरअसल
सत्य से बनाई इमारत गिर-सी गई है
आस्था के आकाश में चटक गई बिजली
बरस रही है चिनगारियाँ अविश्वास की
भावनाओं के सागर में तट को मिटा रही
झकझोरती, व्याकुल भागती-सी लहरें ...
रेत के सफ़े पर ज़िन्दगी के फ़लसफ़े लिखती
ख्यालों की लौटती डूबती-उभरती लहरें
ऐसे में अक्षमताओं से पराजित
उदास आक्रान्त क्षणों में
विपरीत विचारों के भयानक भंवर में
गोते खा रहा मैं .... असहाय
माँ~ !
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विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
माँ की पुण्य तिथि पर नमन ......और नमन आपकी लेखनी को भी जो किसी भी विषय पर लिखी अपनी रचना में पाठक को अपने से अलग कर दूसरी दुनिया में ले जाती है .लाजबाब रचना... हर दिल की आवाज ...हर दिल के भाव माँ के लिए ..
हार्दिक बधाई आपको आ० विजय निकोर जी
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