दर सारे दीवार हो गए
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सारी खिड़की बंद लगीं अब
दर सारे दीवार हो गये
भौतिकता की अति चाहत में
सब सिमटे अपने अपने में
खिंची लकीरें हर आँगन में
हर घर देखो , चार हो गये
सारी खिड़की बंद लगीं अब
दर सारे दीवार हो गए
पुत्र कमाता है विदेश में
पुत्री तो ससुराल हो गयी
सब तन्हा कोने कोने में
तनहा सब त्यौहार हो गए
सारी खिड़की बंद लगीं अब
दर सारे दीवार हो गए
मेरा तेरा हर घर फैला
कपड़े उजले मन है मैला
साजिश रचते हैं रिश्ते अब
कम सबके अधिकार हो गये
सारी खिड़की बंद लगीं अब
दर सारे दीवार हो गए
मैं जैसा हूँ तू भी वैसा
ये भी वैसा वो भी वैसा
कौन बचाएगा अब किसको
जब सारे बीमार हो गए
सारी खिड़की बंद लगीं अब
दर सारे दीवार हो गए
क्या आयेंगे पास पास अब
क्या दिखती है कहीं आस अब
समय जा चुका लगता है अब
अब रिश्ते स्वीकार हो गये
सारी खिड़की बंद लगीं अब
दर सारे दीवार हो गए
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय शिज्जू भाई , गीत की तारीफ़ के लिए आपका शुक्रिया |
आदरणीया महिमा श्री जी , आपकी सराहना के लिए आपका बहुत शुक्रिया |
आदरणीय सौरभ भाई , गीत पर आपकी आश्वस्ति मेरे लिए संतोष कारक है , आपका बहुत आभार |
अंतिम बंद से मई खुद भी संतुष्ट नहीं हूँ , कुछ सूझते ही सुधार लूंगा | आपका पुन: आभार |
आदरणीय सुरेन्द्र कुमार भाई , गीत के सराहना के लिए आपका आभारी हूँ |
आदरणीय आशुतोष भाई , आपका आभार |
आदरणीय पवन कुमार भाई , हौसला अफजाई के लिए आपका शुक्रिया |
आदरणीय गोपाल कृष्ण भाई , सराहना के लिए आपका बहुत शुक्रिया |
आदरणीय नरेंद्र सिंह भाई , आपका बहुत बहुत आभार |
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