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रिश्तों का अंतिम संस्कार ( एक अतुकांत चिंतन ) गिरिराज भंडारी

अच्छा ही करते हैं

कितना भी अपना हो

खून का हो या अपनाया हो प्यार से

मर जाने पर जला देते हैं

मुर्दा शरीर

न जलाएं तो सड़ने का डर बना रहता है

फिर इन्फेक्शन , बीमारी का भय

ज़िंदा लोगों के लिए खतरा ही तो है , किसी का मुर्दा शरीर

 

और फिर भूलने में भी सहायता मिलती है

कब तक याद करें

कब तक रोयें

जीतों को तो जीना ही है

अच्छा ही करते हैं जला के

 

कुछ रिश्ते भी तो मुर्दा हो जाते हैं / सकते हैं

इनका क्या ? 

बोझ ही तो होते हैं मुर्दा रिश्ते ,

लटकाए घूम रहे हैं

फिर से जीवित होने की आस में

मुर्दे भी कभी जीवित होते हैं , कहानियों को छोड़ कर

जो ये होंगे ज़िंदा

भावनाओं के बंटवारे में नाहक की हिस्सेदारी लिए मुर्दा रिश्ते

फ़ाज़िल पड़े, सड़ते, गलते

बीमारी ही फैलायेंगे, धोखे में न रहें

कर ही दिया जाय आज इनका भी

अंतिम संस्कार

जलाने वाले जला दें ,

गाड़ने वाले गाड़ दें , पर

कर ही दें अंतिम संकार

ताकि बचा सकें जीवित रिश्ते

****************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 4, 2014 at 5:16pm

आदरणीय बड़े भाई विजय की , आपकी सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 4, 2014 at 5:15pm

आदरणीय सौरभ भाई , आपकी उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रया से सच में उत्साहित हुआ , आपका तहे दिल से  आभार | घिस रहा हूँ अपने को रोज फाइन ट्यूनिंग के लिए आदरणीय , नाउमीद नहीं हूँ पर है कठिन मेरे लिए   , देखिये कब सीख पाता  हूँ |

Comment by vijay nikore on September 4, 2014 at 3:44pm

रिश्तों के विषय पर अंतर्निहित भाव आपकी रचना में बहुत ही सुगमता से प्रस्तुत हुए हैं। आपको हार्दिक बधाई, आदरणीय भाई गिरिराज जी।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 4, 2014 at 6:45am

आदरणीय गिरिराजभाईजी, आपने इस प्रस्तुति के माध्यम से जिस विन्दु को उठाया है वह न केवल प्रासंगिक है बल्कि स्वयं में कई धुरियों को अभिकेन्द्रित करता कई वृत्तों को भी साधता हुआ है.

स्वार्थ और प्रासंगिकता में महान अन्तर है. दोनों के अपने-अपने हेतु हुआ करते हैं. स्वार्थ भी कई रिश्तों के बिगड़ने का कारण होता है, तो प्रासंगिकता में आयी कमी भी ऐसे ही परिणाम का कारण हुआ करती है. परन्तु, जहाँ पहले के कारण मन को क्षोभ अपने सान्द्र रूप में जीन-पर्यंत मथता रहता है, तो दूसरे के कारण मन में एक निर्लिप्तता व्याप जाती है.

आपकी इस वैचारिक प्रस्तुति के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ, आदरणीय.

आपका अतुकान्त रचनाओं में प्रयासरत होना और प्रस्तुतीकरण के क्रम में लगातार संयत होते जाना आश्वस्त करता है. फिरभी, फाइन-ट्युनिंग का अभ्यास बना रहे, आदरणीय.

शुभ-शुभ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2014 at 6:07pm

आदरणीय हरिवल्लभ भाई , रचना के अनुमोदन के लिए आपका दिली आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2014 at 6:06pm

आदरणीय श्याम नारायण भाई , आपका हार्दिक आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2014 at 6:05pm

आदरणीय आशुतोष भाई , रचना के अनुमोदन के लिए आपका बहुत आभार |

Comment by harivallabh sharma on September 2, 2014 at 5:08pm

ठहरा हुआ पानी सड़ने लगता है...रिश्ते भी सड़ते है...सामाजिक रोग ढ़ोना ,कितना समझोता हो निर्वाह कठिन हो जाता है...अतु सुन्दर सन्देश हेतु बधाई.

Comment by Shyam Narain Verma on September 2, 2014 at 11:08am
" बहुत सुन्दर ॥ अतुकांत रचना के लिये हार्दिक बधाइयाँ ................. "
Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 2, 2014 at 10:15am

आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..मुर्दों का बोझ ढोना समाज के लिए हितकर नहीं है ..फिर चाहे व्यस्थाओं के मुर्दे हों , आस्थाओं के , भाषाओं के . रीतियों के ...क्योंकि हर जीव्रित में मुर्दा अदृश्य या सूक्षम रूप में ही सही शामिल जरूर होता है ..आपने इस रचना के माध्यम से समाज को अद्भुत सन्देश दिया है जिसके लिए मैं आपको ह्रदय से बधाई देता हूँ सादर 

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