आज पूरे दो वर्ष बाद बेटा घर आया था, माँ कि पथराई आँखों में जैसे खुशियों का शैलाब उमड़ पड़ा हो। रमेश अपने माँ-बाप का इकलौता बेटा था। शादी होने के बाद पत्नी को लेकर शहर में ही रहने लगा था। घर पर पैसा बराबर भेजता रहता था, पर पैसो में वो आत्मसुख कहा जो अपने आँख के तारे के पास होने में है। दो दिन किसी तरह रहने के बाद ही वह वापस जाने की जिद करने लगा। नौकरी छोड़ के आया हूँ, बीबी अकेली है, छुट्टी कम ही मिली है, फिर जल्दी ही आ जाऊँगा, तमाम बहाने बनाने लगा। माँ बाप भी बेबस थें, बेचारे क्या करतें, साथ-साथ स्टेशन तक छोड़ने गयें। माँ की आँखों में अनवरत अश्रुधारा बह रही थी। ये सब देखकर रमेश बोला आपलोग ये क्या रोना-धोना लगा रखे हैं, अगली बार कभी आउँगा तो मुझे स्टेशन छोड़ने मत आइएगा, मुझे ये सब पसन्द नही। ट्रेन स्टेशन से जाने लगी, माँ अब भी टकटकी लगाकर देख रही थी, जैसे कलेजे का टुकड़ा निकला जा रहा हो, लेकिन रमेश को वो ममत्व कहाँ दिख रहा था जो माँ के दिल में एक बेटे के लिए तड़प रहा था, उसे तो ये भी याद नही था कि उन्होने अपना पेट काटकर, अपने हिस्से का निवाला खिलाकर उसे इतना बड़ा किया था। ट्रेन के स्टेशन से आगे बढते ही पत्नी को फोन किया ..... यार कितना बोरिंग रहा ये सफर, तुमको पुरे दो दिन मिस किया.........मन ही नही लग रहा था.........किसी तरह बहाना बनाकर आया हूँ .....बस कल सुबह ही पहुँच जाऊँगा।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी सादर अभिवादन...
इस प्रयास को बल देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद....
अच्छी लघु कथा, बच्चों के पास माँ बाप का वो स्नेह देखने का वक़्त ही कहाँ है आजकल ...बहुत बहुत बधाई आपको
यही जीवन है मित्र , और यही सच्चाई भी , बहुत सुन्दर | बधाइयाँ
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