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रूप अनूप निहारा करूँ /// सवैय्या

 विधान : 7  सगण + 1 एक रगण (कुल 24 वर्ण )

 

घन राति अमावस पावस की तम तोम म बैठि  गुजारा करूँ I 

गुनिकै मन मे रतनाकर के जल नील क नक्श उतारा करूँ  I

सुषमा नभ की अवलोकि सदा मन में यहु भाव विचारा करूँ I

जग माहि रचा व बसा   प्रभु  का वह रूप अनूप निहारा करूँ I

 

*                                         *                                     *

करि सम्पुट नैन भली विधि सों, प्रभु को धरि ध्यान निहारा करूँ I

कछु भक्ति करूँ, कछु ध्यान धरूँ, तन छार करूँ, मन मारा करूँ I

जब   प्रेम  सुपीर  जगै   उर  में   तब  जाय   क  रंचु  सहारा  करूँ I

प्रभु   चंद्रहि   चातक  की   तरियो  वह   रूप   अनूप   निहारा   करूँ I     

(मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 1, 2014 at 11:51am

आदरणीय सौरभ जी

आपका कथन सत्य है i  गुजारा करू में रा पर जोर न  होने से (राकरू)  रकरूं  भी सगण  हुआ और सवैय्या  दुर्मिल  i सादर i


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 31, 2014 at 10:23pm

आदरणीय गोपाल नारायनजी, आपकी प्रस्तुति के लिए धन्यवाद. किन्तु, वैधानिक रूप से क्या इस दण्डक का कोई नाम है ? मुझे नहीं लगता.

आदरणीय, सगण की आठ आवृतियाँ दुर्मिल सवैया का कारण बनती हैं. इस सवैया के अंत के एक सगण को परिवर्तित किया जाय तो सगणात्मक सवैये के अन्य सवैये, यथा, सुन्दरी, अरविन्द, सुख, सुखी सवैया के वर्णक्रम बनते हैं.

आपकी प्रस्तुति में भी अंत का रगण आरोपित ही है, आदरणीय.
तभी गुजारा, उतारा, विचारा, निहारा आदि-आदि तुकान्त शब्दों का अंतिम अक्षर ’रा’ गुरु की तरह उच्चारित न हो कर लघु की तरह उच्चारित हो रहा है, और वर्णक्रम में आठ सगण की आवृति यानि दुर्मिल सवैया का भ्रम हो रहा है.

सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 7, 2014 at 9:24pm

मित्र गिरिराज जी

आपका स्नेह यूँ ही मिलता रहे i  सादर i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 7, 2014 at 9:23pm

राम शिरोमणि जी

आपका आभार  i आपकी जिज्ञासा कुछ अस्पष्ट सी है i जहाँ तक मै समझा हूँ  रूप अनूप निहारा करूं को बार बार दोहराने के औचित्य की बात है i तो मित्र आप ऐसा हजार बार कर सकते है -यह तो एक टेक मात्र है i आधुनिक रसखान  ने ऐसे कई सवैय्ये रचे हैं i  सस्नेह i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 7, 2014 at 5:42pm

आ. बड़े भाई गोपाल जी , बहुत सुन्दर प्रवाह मयी सवैया की रचना हुई है , आनंद आ गया पढ़ के , आपको दिली बधाइयाँ |

Comment by ram shiromani pathak on September 7, 2014 at 1:14pm
बहुत सुन्दर सवैया छंद आदरणीय गोपाल जी बहुत बहुत बधाई आपको ।सादर
एक ही छंद निहार करूँ तुकंतता क्या उचित है आदरणीय कृपा कर मार्गदर्शन करें।।।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 7, 2014 at 11:41am

सुलभ जी

आपका शत-शत आभार i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 7, 2014 at 11:39am

श्याम नारायन जी

आपका बहुत बहुत आभार i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 7, 2014 at 11:37am

अखिलेश जी

आपके अनुमोदन से प्रसन्नता हुयी I मुझे कोई शब्द कठिन लगा नहीं तो अर्थ देना जरूरी नही समझा  i पर  आगे आपकी सलाह पर अमल करूंगा i आपको पता है कि सवैय्या  आदि में न ने हो सकता है यदि उच्चारण पर जोर न हो i पर आलोचकों की दुनिया बड़ी निराली है  i उन्हें भी देखना पड़ता है i  आप जैसे जानकर का अनुमोदन मेरे लिए प्रेरणा की वस्तु है   i सादर i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 7, 2014 at 11:29am

नीरज जी

आपके प्रोत्साहन का आभारी हूं   i सादर i

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