चाँद बढ़ता रहा...... चाँद घटता रहा.
यूँ कलेजा हमारा ........धड़कता रहा.
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उलझने रात सी ....क्यों पसरती रहीं.
वो दरम्याँ बदलियों .... भटकता रहा.
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टिमटिमाता सितारा रहा... भोर तक.
शब सरे आसमा को.... खटकता रहा.
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उस हवेली पे जलता था... कोई दिया
बन पतंगा सा उस पे.... फटकता रहा.
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चन्द साँसें अभी हैं...... बचीं रात की.
कोई सपनों में फिर भी. अटकता रहा.
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उस झरोखे से दी थी..... किसी ने सदा.
सर्प रस्सी से तुलसी .......लटकता रहा.
**हरिवल्लभ शर्मा दि.05.09.2014
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
चन्द साँसें अभी हैं...... बचीं रात की.
कोई सपनों में फिर भी. अटकता रहा.
चाँद बढ़ता रहा , बहुत सुन्दर एवं आकर्षक। बधाई आदरणीय हरी बल्लभ शर्मा जी।
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