न होना दूर नज़रों से कसम हमको खिलाती थी
न दे जब साथ लब उसके इशारो से बुलाती थी
किताबों में छुपाती थी दिया हमने जो दिल उसको
बचा नज़रे सभी की वो उसे दिल से लगाती थी
चुरा नज़रे सभी की हम मिले जब बाग में इक दिन
लगा कर वो गले हमको बढ़ी धड़कन सुनाती थी
कभी आँखों मे डाले अाँख कर देता शरारत तो
चुरा कर वो नज़र हमसे जरा सा मुस्कुराती थी
न भूलेगे कभी हम तो बिताये साथ पल उसके
छुपा कर चाँद सा मुखड़ा हमें हरदम सताती थी
मौलिक एवं अप्रकाशित
अखंड गहमरी
Comment
जी हां, इस बदलाव से ये गजल काफिए के स्तर पर दुरुस्त हो जाएगी।
अादरणीय गुरूवर गिरिराज भंडारी जी आपको चरण स्पर्श आप सर्मथन नहीं आदेश करें।
आदरणीय शकील समर जी आप जैसे मार्गदर्शक की वजह से आज हम सीख पाये है और सीख पा रहे है मार्गदर्शन के लिये आपको नमन जहॉं तक बदलवा की बात है मैने ये बदलाव किया है क्या इससे समस्या हल हो जायेगी
न होना दूर नज़रों से कसम हमको खिलाती थी
सजा दो मॉंग अब मेरी इशारो से बताती थी
आदरणीय अखंड भाई , ग़ज़ल की बातें बहुत खूब सूरत लगीं , काफिये में गड़बड़ी है , आदरणीय शकील भाई के कहे का मैं भी समर्थन करता हूँ , सुदार लीजिये गा | प्रयास के लिए बधाइयाँ |
आदरणीय अखंड गमहरी साहब,
आपकी ये गजल काफिए के स्तर पर खारिज हो रही है। मतले में आपने वकाफी 'खिलाती' और 'बुलाती' लिया है। मेरी जानकारी के अनुसार इसमें इकवा दोष है। अगर क्षण भर के लिए इकवा दोष को नजरअंदाज भी कर दिया जाए तो शेष अशआर के काफिये भी खारिज हो रहे हैं। क्योंकि किसी में भी 'लाती' को नहीं निभाया गया है। सादर।
हम आपके मार्गदर्शन एवं उत्साहवर्धन्ा के सदैव आकांक्षी है मेरा प्रणाम स्वीकार करें आदरणीय harivallabh sharma जी
हम आपके मार्गदर्शन एवं उत्साहवर्धन्ा के सदैव आकांक्षी है मेरा प्रणाम स्वीकार करें आदरणीय Dr. Gopal Krishna Bhatt 'Aakul' जी
बहुत सुन्दर ग़ज़ल..
किताबों में छुपाती थी दिया हमने जो दिल उसको
बचा नज़रे सभी की वो उसे दिल से लगाती थी..सभी अशआर लाजबाब ..बधाई आपको.
बहुत सुंदर शृंगारित भाव।
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