आज फिर लड़खड़ाते कदमों से
गिरने की कोशिश की
यह लालच संजोये हुए कि
आप आ जाओगे
फिर से मुझे चलना सिखाने को
मेरी अंगुली पकड़ के
मुझे गिरने नहीं दोगे...
काश आपकी पदचाप फिर सुन पाता,
या काश, मेरे क़दमों को गिरते हुए
आपकी आदत ना होती..
साथ थे आप तो पैर अल्हड़ थे
घिसटते कदम थे चाल बेताल थी..
विश्वास था फिर भी ना गिरने का
आज आपकी याद है...
पैर तने हैं, कदम सधे हैं
चाल भी सीधी है
फिर भी डर है कि
आपकी राह को छोड़ कर
कहीं गिर ना जाऊं
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
पवन कुमार जी, आपका हृदय से धन्यवाद |
आदरणीय लक्ष्मण रामानुज जी, रचना का यही भाव है, जब किसी बड़े का साथ रहता है तो कोई परवाह नहीं होती... मेरे पिता को समर्पित की है यह रचना मैनें| आपका हार्दिक आभार
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति भईया ... सादर बधाई !
जब तलक साथ है एक और एक ग्यारह है | संभालना आसान है | जब हो गए अकेले तो स्वयम की छाया से भी लगता डर है |
यही भाव लिए साथ को याद करती सुंदर रचना के लिए बधाई
आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी, आपका हार्दिक आभार|
" बहुत ही सुन्दर भावात्मक प्रस्तुति .. बधाई " |
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