“तालाब सूख जाएगा बरगद की छाँवों में ”
221 2121 1221 212
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अब आग आग है यहाँ हर सू फ़ज़ाओं में
तुम भी जलोगे आ गये जो मेरी राहों में
तिश्ना लबी में और इजाफ़ा करोगे तुम
ऐसे ही झाँक झाँक के प्यासी घटाओं में
वो शह्री रास्ते हैं वहाँ हादसे हैं आम
जो चाहते सकूँ हो, पलट आओ गाँवों में
तू देख बस यही कि है मंजिल बहुत क़रीब
तू देख मत अभी से कि छाले हैं पांवों में
तू बस मिला नज़र, मेरे ज़ज्बात पढ़ के देख
किसको मिला क्या घूर के खाली खलाओं में
जब धूप सब सुखाये , भला कैसे ये कहूं
“तालाब सूख जाएगा बरगद की छाँवों में ”
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मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
आदरणीय खुर्शीद भाई , आपकी सराहना ने हिम्मत बढ़ा दी , हौसला अफजाई का शुक्रिया |
तिश्ना लबी में और इजाफ़ा करोगे तुम
ऐसे ही झाँक झाँक के प्यासी घटाओं में
आदरणीय गिरिराज साहब उम्दा ग़ज़ल हुई है ,ढेरों दाद कबूल फरमावें |ख़ास तौर पर इस शेर पर मुकर्र इरशाद
वो शह्री रास्ते हैं वहाँ हादसे हैं आम
जो चाहते सकूँ हो, पलट आओ गाँवों में
सादर अभिनन्दन
जी हाँ, आदरणीय भंडारी जी, रदीफ़ 'में' का तक्कीअ ठीक है, पर आप ने ठीक फरमाया और हर एक काफिये में छूट ली गई है | वार्ता के लिए आभार !
आदरणीय संत लाल भाई , गाँवों में, पांवों में, छांवों में , सभी मे, वों -- की मात्रा गिराई गयी है जो , मत्रा गिराने के नियम के अनुकूल है , इसी लिए , गाँव में को , २१२ लिया गया है
“तालाब सूख जाएगा बरगद की छाँवों में ” -- इस मिसरे के लिखने वाले मूल शायर जनाब इरफानी साहब हैं , उन्ही की तरह में ये ग़ज़ल केही गयी है | और आदरणीय इस ग़ज़ल में रदीफ़, में है , छावों , गावों आदि काफिया है |
आदरणीय भंडारी जी,
यदि आप हर शेर के रदीफ़ में छूट ले रहे हैं तो ठीक है, अन्यथा गाँवों में, पांवों में, छांवों में आदि का तक्कीअ २१२ कैसे होगा ?
आदरणीय कँवर करतार भाई , आपकी सराहना और उत्साह वर्धन के लिए तहे दिल से शुक्रिया |
आदरणीय संत लाल भाई , आपकी सराहना के लिए हार्दिक आभार |
आदरणीय आप किस शे र की तक्तीअ की बात कह रहे हैं , इंगित कर दें तो अच्छा होगा , मेरे खयाल से तो तक्तीअ सही है , जिस शे र को आपने पसंद किया है उसकी तक्तीअ दे रहा हूँ ----
वो शह्री २२१ / रास्ते हैं २१२१ / वहाँ हाद १२२१ / से हैं आ २१२ / ( म १ ) एक मात्रा अंत में छूट की तरह है , गिनते नहीं हैं
जो चाह २२१ / ते सकूँ हो२१२१ / , पलट आओ १२२१ / गाँवों में २१२
अगर इसी शे को आप बोल रहे हैं तो , ऊपर तक्तीअ कर दिया हूँ , अगर कुछ गलत हो तो बताइयेगा |
तू देख बस यही कि है मंजिल बहुत क़रीब
तू देख मत अभी से कि छाले हैं पांवों में
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जब धूप सब सुखाये , भला कैसे ये कहूं
“तालाब सूख जाएगा बरगद की छाँवों में ”
भाई गिरिराज बेहतरीन ग़ज़ल के लिए कोटि कोटि बधाई--बहुत समय बाद इतनी उमदा ग़ज़ल पढ्नेको मिलीहै
आदरणीय भंडारी जी,
वैचारिक दृष्टि से बहुत अच्छी ग़ज़ल है, पर तक्कीअ पर गौर करने की जरूरत है --
"वो शह्री रास्ते हैं वहाँ हादसे हैं आम
जो चाहते सकूँ हो, पलट आओ गाँवों में"
...हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !
आदरणीय हरि वल्लभ भाई , आपकी सराहना के लिए दिल से आभारी हूँ |
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