मन
भटकता है इधर- उधर,
गली- गली,नगर- नगर
करता नहीं अगर-मगर
प्रेम खोजता डगर-डगर
झेलता जीवन का कहर
व्यस्त रहता आठों प्रहर
घंटी के नादों में घुसकर
पांचों अजानो को सुनकर
गीता ,कुरआन पढकर
माटी की मूरत गढ़कर
कथा -कीर्तन सजाकर
संतों-महंतों से मिलकर
आज भी मानव मन
क्यों भ्रमित है निरंतर?
मौलिक व अप्रकाशित
विजय प्रकाश शर्मा
Comment
आ० गिरिराज भाई ,
आपका स्नेहसिक्त प्रोत्साहन मिला,मेरी रचना सार्थक हुई और मैं धन्य हुआ.
बहुत आभार माननीय संतलाल करूण जी.
बहुत खूब , आदरणीय विजय भाई , मन को खूब समझा है आपने , बधाई |
आदरणीया विजय प्रकाश शर्मा जी,
मन जैसे सूक्ष्म जीवन-तत्व पर इस भारी-भरकम प्रश्नवाची कविता के लिए हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ ! --
"आज भी मानव मन
क्यों भ्रमित है निरंतर?"
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