"अतुकांत"
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गली के मोड़ पर जब दिखती
वो पागल लडकी
हंसती
मुस्कुराती
कुछ गाती सकुचाती,
फिर तेज कदमो
से चल
गुजर जाती
चलता रहा था क्रम
अभ्यास में उतर आई
उसकी अदाएं
हँसा गईं कई बार कई बार
सोचने पर
विवश
विधाता ने सब दिया
रूप नख-शिख
दिमाग दिया होता थोडा
और सहूर
जीवन के फर्ज निभाने का,
वय कम न थी
मगर आज...........
दिखी न वो हँसी
मोड़ तक आती वह गली
खामोश थी |
दो कदम चल कर देखा,
भीड़ खडी थी और
सफ़ेद चादर से ढँका तन
खुला चेहरा
दहशत भरा
मुस्कुराना भूलकर |
( मौलिक अप्रकाशित )
Comment
आ. विजय निकोरे जी
रचना की सुन्दर सराहना के लिए अतिशय आभार
सादर नमन !
अति सुन्दर मार्मिक प्रस्तुति। बधाई।
बहन राजेश कुमारी जी , दिल से शुक्रिया प्रोत्साहन के लिए नमन !
बहुत मार्मिक चलचित्र की भाँती आँखों के सामने से गुजरती अपनी छाप छोडती रचना ...बहुत- बहुत बधाई छाया शुक्ला जी .
आ. जीतेन्द्र गीत जी अतिशय धन्यवाद !
सादर नमन !
अतिशय आभार आ. राम शिरोमणि पाठक जी !
सादर नमन
आ. विजय मिश्र जी बहुत बहुत धन्यवाद सुंदर प्रतिक्रिया के लिए सादर नमन
bahut बहुत मर्मस्पर्शी रचना. बधाई आदरणीया छाया जी
अतिशय धन्यवाद स्वीकारें बहन डॉ नूतन डिमरी गैरोल जी
आपने सच कहा क्रूर पर सत्य सादर नमन !
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