प्रेम-कर्तव्य और सदाबहार
संकर-जाती के दो सदाबहार
एक कर्तव्य-बोध दूसरा प्रतीक-प्यार
रोप थे इस बार/देशी के मुरझाने के बाद
उम्मीद थी दोनों बढ़ेंगे-खिलेंगे
मेरे जीवन में नव-रंग भरेंगे
लाएँगे फिर मधुमास
पूरा था विश्वास/मन में था उल्लास |
मगर प्रेम-प्रतीक कुम्हला गया है
उसके अस्तित्व पे संकट आ गया है
बरसात के पानी ने उसकी जड़े गला दी
उसके होने कि प्रासंगिकता घटा दी हैं |
यूँ तो वो शुरु से कमज़ोर था
और यदा-कदा ही हरा-भरा होता
पर हो जाता था मायूस
मौसम के बदलाव से
अक्सर वो कुम्लहा जाता
घटती-बढ़ती धूप-छाँव से |
उस पर मेरा पारिस्तिथिक पक्षपात
दे गया उसे आघात
मिट्टी के गमले में मैंने
कर्तव्य का सदाबहार रोपा
प्लास्टिक-बर्तन में प्रेम को लगा
,दिया उसको धोखा
मिट्टी के गमले में हवा-धूप के साथ
पानी की निकासी थी
बंद प्लास्टिक-बर्तन में पानी कैद था
हवा बासी थी |
उस पर जब बरसात हुई झमाझम
कर्तव्य को खिलता देख हुआ मन प्रसन्न
प्रेम भी पहले हरा-भरा फिर खिला
अच्छा लगा दोनों के साथ
खिलने का सिलसिला |
पानी की निकासी और ताज़ी हवा ने
कर्तव्य को हरा-भरा बनाया
पर पानी खड़ा रहने से और बासी हवा से
प्रेम-प्रतीक कुम्लाहाया |
उसे मुरझाता देख मन हुआ विकल
घिर आए भावनाओं के बादल
एक कील से वो बर्तन छेद दिया
चारित्रिक-आडम्बर भेद दिया |
तब से वो सदाबहार
जीवन और मृत्यु के बीच फंसा है
प्रेम कर्तव्य और भावनाओं के
बाहुपाश में जीवन कसा है
तब से मैं असमर्थ उस प्रेम के
सदाबहार को निहार रहा हूँ
हे जीवनदाता! मैं तुझे पुकार रहा हूँ
प्रेम अगर शाश्वत है /प्रेम अगर चिर-सत्य है
तो उस सदाबहार को फिर से बहारों से भर दे
मैं नालायक सही उसे किसी अच्छे माली के हवाले के दे |
जहाँ वो खिले-बढ़े-मुस्कुराए/उसका वो स्वरूप
किसी के जीवन की सदाबहार हो जाए |
C-@-सोमेश कुमार
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
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