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चित्त की वृत्ति
चंचल है कदाचित,
यह मचलती
सूर्य के प्रकाश जैसी।


तन विषय विष से भरे
घट को पिए जो
खार के सागर
अहं के ज्वार उगले।


रोक दो वृत्ति
तमस को भेद कर -चित्त में
योग - अनुशासन
तुला पर तोलता है।


वृत्ति की आवृत्ति
निश्छल शून्य जब भी
दिव्य अद्भुत योग से
साक्षात मुक्ति।


आत्मा - परमात्मा
चित्त के उपज जो
एक खोली में रहें जीव जैसे-
काष्ठ में अग्नि,

जल में वाष्प संचय।


के0पी0सत्यम/मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 12, 2014 at 5:18pm

आ0 निकोर सर जी,   कविता पर आपके आत्मिक व भावपूर्ण अनुमोदन से मेरा लेख सार्थक हुआ। आपका हार्दिक आभार। सादर,

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 12, 2014 at 5:18pm

आ0 राजेश कुमारी जी, कविता पर आपके आत्मिक व भावपूर्ण अनुमोदन से मेरा लेख सार्थक हुआ। आपका हार्दिक आभार। सादर,

Comment by vijay nikore on October 12, 2014 at 12:31pm

एक कठिन विषय पर आपने सुंदर भाव रचे हैं। हार्दिक बधाई, आदरणीय केवल जी।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 12, 2014 at 11:17am

आत्मा - परमात्मा
चित्त के उपज जो
एक खोली में रहें जीव जैसे-
काष्ठ में अग्नि,

जल में वाष्प संचय।---वाह्ह्ह ...बहुत सुन्दर आध्यात्मिक भावों से आप्लावित उत्कृष्ट रचना ...बहुत बहुत बधाई केवल जी. 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 11, 2014 at 11:42am

आ0 गोपाल नरायन भाईजी,   इस कविता पर एक बार फिर आपका स्नेह पाकर मैं धन्य हुआ। आपके स्नेह व सराहना हेतु आपका हार्दिक आभार।  सादर,

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 11, 2014 at 11:37am

आ0 शिज्जू भाईजी,   कविता की सराहना हेतु आपका हार्दिक आभार।  सादर,

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 11, 2014 at 11:36am

आ0 श्याम नारायन भाईजी,   कविता की सराहना हेतु आपका हार्दिक आभार।  सादर,

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 11, 2014 at 11:34am

आ0 विजय भाईजी,  जिस प्रकार हम सरसों के दाने से भी तुच्छ बीज में बृहद बरगद को वृक्ष नहीं देख पाते हैं, उसी प्रकार से काष्ठ अर्थात लकड़ी में अग्नि और पानी में वाष्प को हम तब तक नही देख पाते जब तक कि उसे जलाया अथवा गर्म न किया जाए। ठीक इसी प्रकार इस देह में आत्मा और परमात्मा सम्मिलित रूप से विद्यमान हैं, किन्तु हम उसे अहसास नहीं करना चाहते। कविता की सराहना हेतु आपका हार्दिक आभार।  सादर,

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 11, 2014 at 11:27am

आ0 जितेन्द्र भाईजी,  पश्चाताप, त्याग और तपस्या से गहनतम अंधेरे को भी ज्योतिमय बनाया जा सकता है। इस जीवन में निराशा मात्र संशय तक ही सीमित होती है। आशा और धैर्य सदा विजय की राह पर आरूढ़ होते है। आपका हार्दिक आभार।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 10, 2014 at 5:19pm

वाह वह केवल जी

क्या धाँसू कविता रची है i मै मुग्ध हूँ i

 

आत्मा - परमात्मा
चित्त के उपज जो
एक खोली में रहें जीव जैसे-
काष्ठ में अग्नि,

जल में वाष्प संचय।

 

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