चित्त की वृत्ति
चंचल है कदाचित,
यह मचलती
सूर्य के प्रकाश जैसी।
तन विषय विष से भरे
घट को पिए जो
खार के सागर
अहं के ज्वार उगले।
रोक दो वृत्ति
तमस को भेद कर -चित्त में
योग - अनुशासन
तुला पर तोलता है।
वृत्ति की आवृत्ति
निश्छल शून्य जब भी
दिव्य अद्भुत योग से
साक्षात मुक्ति।
आत्मा - परमात्मा
चित्त के उपज जो
एक खोली में रहें जीव जैसे-
काष्ठ में अग्नि,
जल में वाष्प संचय।
के0पी0सत्यम/मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत सुन्दर आदरणीय केवल प्रसाद जी बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिये
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ... सादर बधाई |
सच ही कहा है आपने अपनी रचना में आदरणीय केवल जी. यह चित्त सदा ही चंचल होता है रौशनी की तरह, किन्तु सामयिक अंधेरों में संभलने का मौका भी नही देता है. बहुत ही सुंदर सार्थक चित्रण, बधाई स्वीकारें आदरणीय
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