" बेटा, तुम जब भी शहर से आते हो तो घर में कम और इस पेंड़ के पास ज्यादे समय बिताते हो, घर में मन नही लगता क्या..."
" चाचा, यहाँ बड़ा सुकून मिलता है! याद है आपको जब मैं नर्सरी में पढता था! एक बार वहाँ पौधशाला वाले पौधे बाँट रहे थें, ये आम का पेंड़ मैं वहीं से लाया था, पिता जी पौधों के प्रति मेरा प्रेम देखकर बहुत खुश हुए थें! इसे उन्होने अपने हाथों से लगाया था और खाद-पानी भी समय-समय से दिया करते थें! इसे वे बहुत प्यार करते थें, इसीलिए कुछ पल इसकी छाया में बिताना, पिता जी के स्नेह की छाँव में रहने जैसा लगता है ...."
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय जितेन्द्र भईया सादर अभिवादन, लघुकथा की प्रशंसा हेतु बहुत बहुत धन्यवाद।
पिता के स्नेह से सिंचित बहुत सुन्दर लघुकथा .... बधाई
पवन कुमार जी
पिता के स्नेह से बांधकर आपने लघु कथा को जीवंत किया i यही सूक्ष्मता लघु कथा की आत्मा होती है i
माता - पिता का स्नेहिल ऐहसास बहुत सुखद होता है। बहुत बहुत बधाई।
सुंदर लघु कथा के लिए बधाई |
बहुत ही सुंदर लघुकथा. सच! पिता के स्नेह की छाँव ऐसी ही होती है, अनुशाषित और सुकुनदायक. बहुत बहुत बधाई आपको अनुज पवन भाई
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