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स्नेह की छाँव (लघुकथा)

" बेटा, तुम जब भी शहर से आते हो तो घर में कम और इस पेंड़ के पास ज्यादे समय बिताते हो, घर में मन नही लगता क्या..."

" चाचा, यहाँ बड़ा सुकून मिलता है! याद है आपको जब मैं नर्सरी में पढता था! एक बार वहाँ पौधशाला वाले पौधे बाँट रहे थें, ये आम का पेंड़ मैं वहीं से लाया था, पिता जी पौधों के प्रति मेरा प्रेम देखकर बहुत खुश हुए थें!  इसे उन्होने अपने हाथों से लगाया था और खाद-पानी भी समय-समय से दिया करते थें! इसे वे बहुत प्यार करते थें,  इसीलिए कुछ पल इसकी छाया में बिताना, पिता जी के स्नेह की छाँव में रहने जैसा लगता है ...."

"मौलिक व अप्रकाशित" 

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Comment by Pawan Kumar on October 13, 2014 at 4:27pm

आदरणीय जितेन्द्र भईया सादर अभिवादन, लघुकथा की प्रशंसा हेतु बहुत बहुत धन्यवाद।

Comment by Meena Pathak on October 12, 2014 at 12:43pm

पिता के स्नेह से सिंचित बहुत सुन्दर लघुकथा .... बधाई 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 10, 2014 at 5:02pm

पवन कुमार जी

पिता के स्नेह से बांधकर आपने लघु कथा को जीवंत किया i  यही सूक्ष्मता लघु कथा की आत्मा होती है i

Comment by chouthmal jain on October 10, 2014 at 12:39am

माता - पिता का स्नेहिल ऐहसास बहुत सुखद होता है।  बहुत बहुत बधाई। 

Comment by Shyam Narain Verma on October 9, 2014 at 10:20am

सुंदर लघु कथा के लिए बधाई 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 9, 2014 at 7:43am

बहुत ही सुंदर लघुकथा. सच! पिता के स्नेह की छाँव ऐसी ही होती है, अनुशाषित और सुकुनदायक. बहुत बहुत बधाई आपको अनुज पवन भाई

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