सूनी पड़ीं हैं कब से, रिश्तों की महफ़िलें ये,
आओ हम तुम मिल के, ये महफ़िलें सजा दें।
छेड़ी जो तान तुमने, मायूसी के शहर में,
हम भी हंसी की छोटी सी डुगडुगी बजा दें॥
बंद हैं दरवाजे, बहरों की बस्तियों में,
तो हम भी बन के गूंगे, इन्हें कोई सदा दें।
कुछ ग़म की है उधारी, कुछ क़र्ज़ बेबसी का,
दे बेक़सी के सिक्के, ये क़र्ज़ कर अदा दें॥
खाते लज़ीज़ व्यंजन, समझोगे क्या ग़रीबी,
होता नहीं निवाला, किसी भूखे को खिला दें।
सर पर हमारे बैठे, हैं रौंदते हमे जो,
आओ इन ग़लीज़ों की, मिल के जड़ हिला दें॥
ईमान बेच कर क्या, सोओगे चैन से तुम,
दे कोई जो रिश्वत, चलो उसको कर मना दें ।
और भी हैं राहें, ख़िदमत की मेरे यारों,
बनना है गर लुटेरा, चलो नेता तुम्हें बना दें ॥
उड़ जाएगी ये दौलत, ये रंग शोहरतों के,
सबकी बेहतरी में, चलो इसको कर फ़ना दें।
ओहदे से न मिलेगी, इज़्ज़त किसी के दिल में,
बच्चों को अपने पहले इंसान हम बना दें॥
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ. खुर्शीद जी, आ. गीत जी,
उत्साहवर्धन एवं बधाई के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
माननीया राजेश कुमारी जी,
आपके प्रोत्साहन एवं स्नेह के लिए सादर आभार ।
माननीय बाग़ी जी,
रचना पर आपकी सराहना एवं शुभकामनाओं के लिए बहुत बहुत आभार ।
//ओहदे से न मिलेगी, इज़्ज़त किसी के दिल में,
बच्चों को अपने पहले इंसान हम बना दें॥ //
क्या बात है आदरणीय सन्देश नायक स्वर्ण जी, बहुत ही प्यारी रचना हुयी है, बधाई और हृदय से शुभकामनाएँ।
ओहदे से न मिलेगी, इज़्ज़त किसी के दिल में,
बच्चों को अपने पहले इंसान हम बना दें॥ -----बहुत अच्छी बात कही है
हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति के लिए |
छेड़ी जो तान तुमने, मायूसी के शहर में,
हम भी हंसी की छोटी सी डुगडुगी बजा दें॥
आदरणीय सन्देश जी अच्छी रचना ,हार्दिक बधाई और सादर अभिनन्दन
अच्छी रचना. बधाई आदरणीय सन्देश जी
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