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बचो इस से कि ये आफत बुरी है
नशा कैसा भी हो आदत बुरी है


पतन की ओर गर जाने लगे हो
यकीनन आपकी संगत बुरी है


कि सिगरेट मदिरा गुटका या कि खैनी
किसी भी चीज़ की चाहत बुरी है


हमें मालूम है मरना है इक दिन
मगर इस मौत की दहशत बुरी है


कमाया है जिसे इज्ज़त गँवा कर 
अजय अज्ञात वो दौलत बुरी है

मौलिक व अप्रकाशित 

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 16, 2014 at 12:39pm

//कि सिगरेट मदिरा गुटका या कि खैनी

किसी भी चीज़ की चाहत बुरी है//

मतला के बाद इस शेर का कोई मतलब नहीं रह जाता क्योंकि मतला भी यही कहता है। 

बाकी अशआर बढ़िया हुए हैं, बहुत बहुत बधाई इस ग़ज़ल पर आदरणीय अजय जी।

हां एक बात और : आजकल किस अज्ञातवास में हैं साहब :-)

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on October 16, 2014 at 9:34am

नशीहत देती अच्छी ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 16, 2014 at 8:10am

खुबसूरत गजल. बधाई आपको आदरणीय अजय जी

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