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मन में लड्डू फूटा (लघुकथा)

"भैया डीजल देना"

"कितना दे दूँ भाईसाब ?"
"अरे भैया दे दो दस पन्द्रह लिटर, देख ही रहे हो आजकल लाईट कितनी जा रही है|  रोज-रोज दूकान के चक्कर कौन लगाये|"
"हा भाईसाब इस सरकार ने तो हद कर दी है|" जैसे उसके दुःख में खुद शामिल है दूकानदार
शाम को वही दूकानदार आरती करते वक्त- "हे प्रभु अपनी कृपा यूँ ही बनाये रखना| यदि साल भर भी ऐसे ही सरकार को बुद्धि देते रहे तो बच्चे की पढ़ाई पूरी हो ही जायेगी प्रभु"

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सविता मिश्र

"मौलिक व अप्रकाशित"


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Comment by savitamishra on September 26, 2015 at 2:09pm

मन में लड्डू फूटा (लघुकथा)

"भैया डीजल देना"
"कितना दे दूँ भाईसाब ?"
"अरे भैया गैलेन भर दो, देख ही रहे हो आजकल लाईट कितनी जा रही है| रोज-रोज दूकान के चक्कर कौन लगाये|"
"हा भाईसाब इस सरकार ने तो हद कर दी है|" जैसे उसके दुःख में खुद शामिल है दूकानदार|

उसके जाते ही वही दूकानदार आरती करते वक्त- "हे प्रभु अपनी कृपा यूँ ही बनाये रखना| यदि साल भर भी ऐसे ही सरकार को बुद्धि देते रहे तो बच्चे की पढ़ाई पूरी हो ही जायेगी प्रभु" Savita Mishra सविता मिश्र

Comment by savitamishra on October 18, 2014 at 12:42pm

दिल सी शक्रिया गीत भाई आपका

Comment by savitamishra on October 18, 2014 at 12:40pm

आदरनीय सौरभ भैया शक्रिया अह्दिल स ...दाल म छोंक लगा लिए है मतलब न ...सादर नमस्त ...e बटन नहीं दब रही बहुत कोशिश के बाद यी लिख पा रहे

Comment by savitamishra on October 18, 2014 at 12:37pm

बहुत बहुत शुक्रिया आपका मुकर्जी भैया... सादर

Comment by savitamishra on October 18, 2014 at 12:27pm

राजेश दी सादर नमस्ते ...दिल स आभार

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 18, 2014 at 9:11am

आदरणीया सविता जी, बहुत ही सही विषय पर आपने लघुकथा साझा की है. आज के समय में बस अपनी दूकान चलना चाहिए..चाहे कैसे भी. समस्यायों से किसी को कोई मतलब नहीं.  बहुत-बहुत बधाई आपको प्रस्तुति पर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 18, 2014 at 6:53am

बहुत खूब !  लघुकथा का व्यंग्य वाकई छन्न से लगता है..

हार्दिक बधाईआदरणीया सविताजी.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on October 18, 2014 at 1:56am
//यदि साल भर भी ऐसे ही सरकार को बुद्धि देते रहे तो बच्चे की पढ़ाई पूरी हो ही जायेगी प्रभु"// रचना के इस अंतिम वाक्य में पूरी लघुकथा का मर्म छुपा है. कालाबाज़ारी करता दुकानदार अंधेरे की कामना करता है जिससे उसका अपना घर रोशन हो सके. तिर्यक व्यंग्य का अनूठा निदर्शन. आदरणीया आपको इस भावाभिव्यक्ति के लिए अभिनंदन. सादर.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 17, 2014 at 8:22pm

बहुत सुन्दर लघुकथा इसी को कहते हैं कहीं ख़ुशी कहीं गम ,किसी के लिए अँधेरा किसी का सवेरा | हार्दिक बधाई आपको |

Comment by savitamishra on October 17, 2014 at 8:05pm

दिल सी शक्रिया श्याम भाई आपका

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