"भैया डीजल देना"
"कितना दे दूँ भाईसाब ?"
"अरे भैया दे दो दस पन्द्रह लिटर, देख ही रहे हो आजकल लाईट कितनी जा रही है| रोज-रोज दूकान के चक्कर कौन लगाये|"
"हा भाईसाब इस सरकार ने तो हद कर दी है|" जैसे उसके दुःख में खुद शामिल है दूकानदार
शाम को वही दूकानदार आरती करते वक्त- "हे प्रभु अपनी कृपा यूँ ही बनाये रखना| यदि साल भर भी ऐसे ही सरकार को बुद्धि देते रहे तो बच्चे की पढ़ाई पूरी हो ही जायेगी प्रभु"
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सविता मिश्र
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
मन में लड्डू फूटा (लघुकथा)
"भैया डीजल देना"
"कितना दे दूँ भाईसाब ?"
"अरे भैया गैलेन भर दो, देख ही रहे हो आजकल लाईट कितनी जा रही है| रोज-रोज दूकान के चक्कर कौन लगाये|"
"हा भाईसाब इस सरकार ने तो हद कर दी है|" जैसे उसके दुःख में खुद शामिल है दूकानदार|
उसके जाते ही वही दूकानदार आरती करते वक्त- "हे प्रभु अपनी कृपा यूँ ही बनाये रखना| यदि साल भर भी ऐसे ही सरकार को बुद्धि देते रहे तो बच्चे की पढ़ाई पूरी हो ही जायेगी प्रभु" Savita Mishra सविता मिश्र
दिल सी शक्रिया गीत भाई आपका
आदरनीय सौरभ भैया शक्रिया अह्दिल स ...दाल म छोंक लगा लिए है मतलब न ...सादर नमस्त ...e बटन नहीं दब रही बहुत कोशिश के बाद यी लिख पा रहे
बहुत बहुत शुक्रिया आपका मुकर्जी भैया... सादर
राजेश दी सादर नमस्ते ...दिल स आभार
आदरणीया सविता जी, बहुत ही सही विषय पर आपने लघुकथा साझा की है. आज के समय में बस अपनी दूकान चलना चाहिए..चाहे कैसे भी. समस्यायों से किसी को कोई मतलब नहीं. बहुत-बहुत बधाई आपको प्रस्तुति पर
बहुत खूब ! लघुकथा का व्यंग्य वाकई छन्न से लगता है..
हार्दिक बधाईआदरणीया सविताजी.
बहुत सुन्दर लघुकथा इसी को कहते हैं कहीं ख़ुशी कहीं गम ,किसी के लिए अँधेरा किसी का सवेरा | हार्दिक बधाई आपको |
दिल सी शक्रिया श्याम भाई आपका
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