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सनन्-सनन् चली पवन

सनन्-सनन् चली पवन

ले के पिया मेरा मन

बंधने लगा प्रेम में

देखो पिया धरती गगन !!

सनन्-सनन् चली पवन

नैन का कजरा तेरा

भडकाने लगा प्रेम अगन

उसपे तेरे हाथ का

कंगन करे खनन्- खनन् !!

सनन् सनन् चली पवन..

सुनो पिया बाग़ में

भवरों की ये गुंजन

महक रहा फूलों से

देखो पिया सारा चमन !!

सनन् सनन् चली पवन..

भवरों ने चुराली तुझसे

पैंजन की तेरी छनन-छनन

फूल नहीं महका इनमें

महका तेरा बदन चन्दन !!

सनन् सनन् चली पवन..

तेरी इन बातों से पिया  

घबराने लगा मेरा मन

क्या करूं बता सजन

ये कौन सा है बंधन !!

सनन् सनन् चली पवन..

आ गले लग जा सनम

छोड़ दे सारी सरम

आज का नहीं ये तो  

जन्मों  का है बंधन !!   

सनन् सनन् चली पवन..

>© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित”

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Comment

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Comment by Hari Prakash Dubey on November 13, 2014 at 9:17pm

आपका हार्दिक आभार श्री सोमेश कुमार जी

Comment by somesh kumar on November 13, 2014 at 8:37pm

गात सुलगता जाता है 

सर्द-वात की छुवन से 

बिजली सी चल पड़ती है 

एक तुम्हारे चुम्बन से 

रूप चमकता है मेरा 

तेरे मन के दर्पण से - - -  सनन सनन चली पवन ,प्रेम के नए उल्लास को चित्रित करते गीत के लिए बधाई ,हरि प्रकाश दुबे जी 

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