वर्ष का पहला दिन, दीवार पर टंगा नया कैलेण्डर और जनवरी का पृष्ठ अपने भाग्य पर इतरा रहा था, बाकी महीनों के पृष्ठ दबे जो पड़े थे, सभी को प्रणाम करते देख वह अहंकार और आत्ममुग्धता से भर गया उसे क्या पता कि लोग उसे नहीं बल्कि उस पृष्ठ पर लगी माँ लक्ष्मी की तस्वीर को प्रणाम करते हैं ।
दिन-महीने बीतते गये, संघर्ष सफल हुआ और सबसे नीचे दबा दिसंबर माह का पृष्ठ आज सबसे ऊपर था । उसके ऊपर लगी माँ सरस्वती की तस्वीर बहुत ही सुन्दर लग रही थी ।
(मौलिक व अप्रकाशित)
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Comment
आपकी टिप्पणी इस लघुकथा को पूर्णता प्रदान करती है, आदरणीय डॉ गोपाल नारायण जी इस उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया पर नतमस्तक हूँ, हृदय से आभार।
आदरणीय बागी जी
मेरे पिता कहा करते थे कि आज जो विपन्न है उसकी दुर्दशा पर हंसो मत i हो सकता है कल वह तुम्हारी जगह हो और तुम उसकी जगह i आपकी कथा उस सन्दर्भ की याद दिलाती है i ---ऐ हवा इतरा के न चल --- यही नहीं इस कथा का सौन्दर्य दो देवियों की उपस्थित से अधिकाधिक भास्वर हुआ है i सरस्वती प्रेमियों के तो बल्ले बाले हो गयी i लक्ष्मी ने कहा था कि मैं मूर्खो के पास इसलिए रहती हूँ कि वे भूखो न मरे i सरस्वती-पुत्र तो अपने ज्ञान के बल पर गुजारा कर ही लेंगे i इस सुन्दर कथा ने फिर साबित किया कि आप इस विधा के सम्राट है i i जय माँ सरस्वती i सादर i
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