मुझे जो कहना है कहूँगा
तुम चाहे जो सजा दो
छड़ी मार या तड़ी पार
फिर भी कहूँगा बारम्बार.
क्यों सपने दिखाते हो?
अपनी बातों में उलझाते हो
देश अब कराह रहा है
फिर भी तुम्हे सराह रहा है .
सपनों के साकार होने का
वख्त शायद आ गया है
अच्छे दिन कब आएंगे?
हर जेहन में आ गया है.
जिस उंगली ने वोट किया
वो अब उठने लगी है,
शायद तुन्हारी इक्षाशक्ति
तुमसे रूठने लगी है.
कुछ करो न चमत्कार
जिसे जनता करे स्वीकार
फिर होगी जयकार.
विजय प्रकाश
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
श्री राम शिरोमणि पाठक जी, आपने रचना को सराहा,अपना मंतव्य दिया, हार्दिक आभार.
आ० गिरिराज भाई,
आपका हार्दिक आभार .
आ० शरदेन्दु जी,
आपका स्वागत.आपने इस रचना के माध्यम से साहित्य में राजनीति की झलक देखी , बहुत आभार.
साहित्य समाज का दर्पण होता है और साहित्यकार की भूमिका सचेतक की होती है.इस रचना पर पुनः गौर करें ,इसमें लोगों के अंदर उठने वाले संशय से सचेत किया गया है- दोषारोपण नहीं.मैं स्वयं नेतृत्व के प्रत्येक गतिविधियों से अवगत रहता हूँ उन्हीं के द्वारा भेजे गए मेल और संदेशों से. पीएमओ इंडिया पर. इसे अन्यथा न लें और साहित्य की सचेतक विधा का एक अंश समझें. सादर.
आदरणीय विजय भाई , वर्तमान स्थिति पर बढ़िया रचना की है , दिली बधाई !
आदरणीय बहुत सुन्दर रचना //बधाई आपको
आपने रचना के भाव को विस्तार दे दिया.आपका बहुत अभिनन्दन आ ० डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी.सादर.
जी , जिसने चुनकर भेजा है वह जनता ही उतार सकती है.
हमेशा सारा देश कहता ही तो है पर ----
ऊपर वाला दुखियो की नाही सुनता रे ---- कौन् है जो उसको संसद से उतारे
आ ० भाई गणेश जी,
रचना आपकी रुचि के अनुसार लगी, स्वीकृति के लिए बहुत आभार. स्नेह बनाये रखें.
//जिस उंगली ने वोट किया
वो अब उठने लगी है,
शायद तुन्हारी इक्षाशक्ति
तुमसे रूठने लगी है.//
बहुत खूब आपने आइना सामने रख दिया, बधाई इस कविता पर आदरणीय विजय प्रकाश जी।
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