प्रेम की गुनगुनी धूप है
सूर्य तो बस सुधा कूप है
हंस रहा रश्मियाँ भेजकर
तीर्थ के दीप सा बल रहा
कष्ट में पुष्प सा खिल गया
अनगिनत विश्व का छंद है
कांति का शांति का रूप है
सूर्य तो बस सुधा कूप है
ब्रह्म के कण विचरते हुए
बल तेरा मिल गया हर दिशा
शून्य में रूप तू इष्ट का
अस्त पर व्यस्त तू फिर कहीं
कर्म का धर्म का यूप है
सूर्य तो बस सुधा कूप है
सृष्टि के पुत्र का पालना
तप्त भी तो मनुज के लिए
सिंदूरी सिंदूरी थपकियाँ
कोपलें, गर्भ की सर्जना
मन प्रजा में छिपा भूप है
सूर्य तो बस सुधा कूप है
(मौलिक व अप्रकाशित)
मिथिलेश वामनकर
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय आशुतोष जी
ये मेरा पहला नवगीत है
आदरणीय मिथिलेश जी ..आपके नव गीत आज ही पढने का मौका मिला ..इससे पहले मैंने सिर्फ आपकी ग़ज़लें ही पढ़ी हैं ढेर सारी बढ़ाई के साथ सादर
बहुत सुन्दर मनोहर। अच्छा लेखन
जय श्री राधे
भ्रमर ५
आदरणीय मिथिलेश भाई , आपने अपने गीत हो 15 मात्रा मे साधा है , ज्यादा तर पंक्तियाँ 15 मात्राओं की हैं । लेकिन -
बल तेरा मिल गया हर दिशा -- 2+4+2+3+2+3 -- 16 मात्रायें और
सिंदूरी सिंदूरी थपकियाँ --- 6+6 +5 -- 17 मात्रायें -- यही दो जगह मुझे शंका हुई है ।
आदरणीय, आपको गंभीर प्रयास करते देख खुशी होती है , और इसी लिये कुछ दिखता है तो कह देता हूँ , यहाँ सब की तरह मै भी सीख रहा हूँ , मुझे सर न कहा करें , भाई , बड़ा भाई , मित्र काफी है । अभी बहुत सी कमियाँ मुझमें बाक़ी है जिसे शायद मै दूर भी न कर पाऊँ , मै भी प्रयास रत हूँ सभी मित्रों की तरह । सादर निवेदन ।
बहुत सुन्दर गीत रचना की है आदरणीय मिथिलेश भाई , हार्दिक बधाई स्वीकार करें । मात्रा विन्यास में गड़बड़ी एक दो जगह है , जिससे गेयता बाधित ज़रूर है , आपके लिये सुधार लेना छोटी सी बात है मुझे विश्वास है ।
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय सोमेश कुमार जी, रचना को अनुमोदित करने के लिए.
सूर्य तो बस सुधा कूप है | निश्नदेह जीवन के अविष्कार से लेकर उसके अंत तक सूर्य है,चाहे वैज्ञानिक तर्क से देखें ,श्रद्धा से या काव्य रूप में ,पर सूर्य या उसका प्रतिबिम्ब अनिवार्य है |सुंदर प्रस्तुति-हेतु बधाई
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