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समंदर पार वालों ने हमारा फन नहीं देखा - ग़ज़ल (मिथिलेश वामनकर)

1222-1222-1222-1222

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समंदर  पार  वालों  ने   हमारा  फ़न  नहीं  देखा

जवाँ अहले वतन ने आज तक बचपन नहीं देखा

 

जुरूरी  था, वही  देखा, ज़माने  की  ज़ुबानों  में

कि मीठी  बात देखी है  कसैलापन  नहीं  देखा

   

तबस्सुम देख के  मेरी, तसल्ली  हो गई उनको

हमारी आँख  में  सोया  हुआ सावन नहीं  देखा

  

निजामत का भला अपना वतन कैसा ख़ियाबां है

कि जिसमें गुल नहीं देखे कहीं गुलशन नहीं देखा

 

खुदी को देख के वो तो यकीनन खौफ खा जाती

किसी भी  रात ने कोई  कभी  दरपन नहीं देखा

 

गुजारिश है  गुजारे की, गिरां  कोई  नहीं मांगी         

तसव्वुर में  जहां ऐसा  कभी जबरन नहीं देखा

 

ज़रा तनहां अगर छोड़ा जहां ने रो दिए साहिब

यतीमों का  कभी तुमने  अकेलापन  नहीं  देखा

 

जियारत क्या, परस्तिश क्या, अकीदत क्या, इबादत क्या

किसी मासूम बच्चे का अगर चितवन नहीं देखा 

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(मौलिक व अप्रकाशित)        © मिथिलेश वामनकर

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 18, 2015 at 2:30pm

आदरणीय नितिन गोयल जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. 

//दुसरे शेर में ज़ुबानों में की जगह कर दीजिये...और सार्थक हो जाएगा ।// बात स्पष्ट नहीं हुई है अतः निवेदित है.

निजामत का भला अपना वतन कैसा ख़ियाबां है

कि जिसमें गुल नहीं देखे कहीं गुलशन नहीं देखा

व्यवस्था का देश ऐसा खियाबां (क्यारी) है जिसमे गुल है न देश गुलशन 

सादर 

Comment by Nitin Goyal on August 18, 2015 at 1:43pm
कि जिसमें गुल नहीं देखे कहीं गुलशन नहीं देखा बातसमझ नहींआयी
Comment by Nitin Goyal on August 18, 2015 at 1:41pm
दुसरे शेर में ज़ुबानों में की जगह कर दीजिये...और सार्थक हो जाएगा ।
Comment by Nitin Goyal on August 18, 2015 at 1:38pm
शानदार....ज़िन्दाबाद....हमारी आंख में सोया हुआ सावन नहीं देखा....बेहतरीन मिसरा

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 29, 2015 at 3:31am

हार्दिक आभार आदरणीय आशुतोष जी 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 28, 2015 at 3:17pm

इस सुंदर ग़ज़ल के लिए भी हार्दिक बधाई सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 28, 2015 at 1:34pm

वाह वाह ..आपकी बहुत अच्छी रचनाओं में एक रचना ..कमाल है ढेर सारी बधाई आदरणीय मिथिलेश जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 24, 2014 at 7:47pm

आदरणीय  वीनस केसरी सर, ग़ज़ल आपको पसंद आई, मेरा लिखना सार्थक हुआ। अभिभूत हूँ आपकी टिप्पणी पाकर....आपका बहुत बहुत धन्यवाद आभार।

Comment by वीनस केसरी on December 24, 2014 at 3:40am

यतीमों का  कभी तुमने  अकेलापन  नहीं  देखा

वाह वा क्या कहने ...

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on December 22, 2014 at 12:51pm

जियारत क्या, परस्तिश क्या, अकीदत क्या, इबादत क्या

किसी मासूम बच्चे का अगर चितवन नहीं देखा 

आदरणीय मिथिलेश जी, आपने बहुत कुछ कहा है पर अंतिम पंक्तियाँ (शेर) लाजवाब है ... सादर!

कृपया ध्यान दे...

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