चुनावी समा बाँधना हो जभी वो,
गली में लुटाते रुपैया तभी वो|
लुटा हाट में नोट वोटें बटोरे,
यही वो घड़ी जो भुनाते चटोरे ||
बनायें-बिगाड़ें, सभी पे तुले वो,
इसारा मिले बर्तनें भी धुलें वो|
दिखे जो हुआ आपसे वोट लेना,
विजेता हुए तो, अधेला न देना ||
कभी ज्ञान की ज्योंति जाया न होगी,
बली पुष्ट होते निरा मूढ़-रोगी |
मिटाये अँधेरा डगोँ को बढ़ाए,
यही ज्योंति प्रेरा शिखा पे चढ़ाए….
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शरद सिंह ‘विनोद’
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय श्री "शकूर" जी प्रेरणा हेतु धन्यवाद..........
"जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचते कवि" बहुत खूब सोमेश जी धन्यवाद....छन्दोत्सव हेतु ही यह रचना थी|
आदरणीय श्री 'भंडारी' जी विश्लेषणात्मक टिप्पणी के लिये हार्दिक धन्यवाद !
आदरणीय योगेन्द्र जी इस रचना को गहराई से पढ़ने के लिये सहृदय धन्यवाद!!!
आदरणीय बढिया प्रस्तुति के लिये बधाइयाँ ।
प्रथम पंक्ति -- चुनावी समा बाँधना हो जभी वो -- व्याकरण सम्मत नही लग रही है
शायद ये ठीक रहे -- चुनावी समा बाँधते हैं जभी वो -- सोच के देखियेगा ।
अच्छी रचना ,छ्न्दोत्स्व में दिए ज्ञ चित्र पर आधारित लगती है ,पर भाव और लय प्रभावशाली हैं ,बधाई |
अच्छी रचना है आदरणीय 'विनोद' जी सादर बधाई
आदरणीय 'वामनकर' जी सकारात्मक टिप्पणी के लिये धन्यवाद....श्रेष्ठ्जनो का आशिर्वाद.........आप जैसे विश्लेषक की हम अनुज अनुचरों को जरूरत है|
आदरणीय हरि प्रसाद दुबे जी बधाई व उत्साह वर्धन के लिये धन्यवाद
आदरणीय शरद सिंह जी इस सुन्दर रचना पर बधाई स्वीकार करें !
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