हर जगह हर घडी बस तू साथ है
जहाँ मेरी नज़रे पडी बस तू साथ है
छोड़ा वक़्त ने जहाँ मुझ बदनसीब को
वहां पे मिली खड़ी बस तू साथ है
मेरे नये संसार में बस तू साथ है
प्यार के व्यवहार में बस तू साथ है
बदल गये जिसमें मेरे सब चाहने वाले
उस वक़्त के रफ़्तार में बस तू साथ है
मोहब्बत के इस कर्ज़ में बस तू साथ है
इंसानियत के फ़र्ज़ में बस तू साथ है
यूँ तो खुशियों के हमदर्द सब हैं मगर
मुझे मिले हर दर्द में बस तू साथ है
सावन का असर है जब तू साथ है
यौवन भी अजर है जब तू साथ है
ज़िन्दगी की मेरी कमाई हो तुम
मौत का भी क्या डर है जब तू साथ है ||
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"मौलिक व अप्रकाशित "
Comment
मिथिलेश जी , आपके सलाह के लिए धन्यवाद,,,आगे से रचना के समय ध्यान रखूँगा |
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति //हार्दिक बधाई आपको |
आदरणीय महर्षि भाई जी एक ही रचना दो बार क्यों पोस्ट कर रहे है -
1- http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:598343
2- http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:598580
महर्षि जी बढ़िया प्रयास !
महर्षि जी
वामनकर जी के कथन पर गौर करेंगे तो बहुत बेहतर लिख पाएंगे i सस्नेह ii
अच्छी भावाभियक्ति ... अच्छा प्रयास
रचना का छंद या बहर अवश्य लिखे ..... पाठकों की परीक्षा न लें ....
रचना को मात्राओं में इस तरह भी कहा जा सकता है-
2 1 2 2 - - 2 1 2 2 - - 2 1 2 2
हर जगह पे, हर घडी बस, साथ है तू
जब जहाँ नज़रे पडी बस, साथ है तू
वक़्त ने छोड़ा मुझे ये बदनसीबी
पर मिली जब तू खड़ी बस, साथ है तू
इस नये संसार में बस साथ है तू
प्यार के व्यवहार में बस साथ है तू
चाहने वाले बदल जाए नहीं गम
इस वक़्त के रफ़्तार में बस साथ है तू
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