बॉस के कमरे की अधखुली खिड़की। उसने डूबते सूरज को देखते हुए कहा- “आप मेरे प्रमोशन की बात को हमेशा टाल जाते है.... मेरे हसबेंड के लिए आहूजा ग्रुप में सिफारिश भी नहीं की अब तक... .. उन्होंने तीन महीनों से बातचीत बन्द कर रखी है। हमेशा नाराज रहते है, रोज ड्राइंग रूम में सोते है। पता है, मैं कितनी परेशान हूँ... इस बार पीरियड भी नहीं आया है।”
कहते-कहते वो अचानक मौन हो गई। कमरे में चीखता हुआ सन्नाटा पसर गया था।
क्षितिज पार सूरज तो कब का डूब चुका था।
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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Comment
आदरणीय आशुतोष जी आपने लघुकथा के प्रयास को मान दिया आपका हार्दिक आभार
आदरणीय मिथिलेश जी तरही मुशायरे की आपकी ग़ज़ल से आज का साहित्यिक सफ़र आपको , आपकी रचनाओं को पढने में ही बीतेगा इस शानदार लघु कथा से आगाज़ कर रहा हूँ .इस रचना के माध्यम से आपने सामजिक विकृति को ख़ूबसूरती से उकेरा है ..बधाई तो बंटी है ..
सफलतापूर्वक पाठक तक पहुँचती लघुकथा आदरणीय बहुत २ बधाई
आदरणीय Hari Prakash Dubey जी आपका बहुत बहुत आभार, हार्दिक धन्यवाद... इस प्रयास की सराहना के लिए.
बहुत ही सटीक ,सुन्दर रचना ..हार्दिक बधाई आदरणीय मिथिलेश जी आपको !
आदरणीय मिथिलेश भाई , विधा- लघुकथा मेरे लिये अपरिचित है , लेकिन जो बातें आपने कही है वो बहुत सटीक , आज के कारपोरेट दुनिया की कड़वी सच्चाई है । बढ़िया बात ! बहुत बधाई ।
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