2122 2122 2122
खूब बोला ख़ुद के हक़ में, कुछ हुआ क्या ?
तर्क भीतर तक तुझे ख़ुद धो सका क्या ?
खूब तड़पा , खूब आँसू भी बहाया
देखना तो कोई पत्थर नम हुआ क्या ?
मिन्नतें क्या काम आई पर्वतों से
तेरी ख़ातिर वो कभी थोड़ा झुका क्या ?
जब बहलना है हमें फिर सोचना क्यों
जो बजायें, साज क्या है, झुनझुना क्या ?
लोग सुन्दर लग रहे थे मुस्कुराते
वो भी हँस पाते अगर, इसमें बुरा क्या ?
सरसराती इन हवाओं से फ़साना
भर के सीने में हवा, तुमने सुना क्या ?
मैने यादों को मनाया था बहुत कल
देखता हूँ उनका आना अब रुका क्या ?
ख़्वाब मुझको तीर, ख़ंजर, बम के आये
जी रहा इंसान था वो मर गया क्या ?
जब नुक़ूशे शक़्ल सब कुछ बोलते हैं -- शक़्ल में उभरी रेखायें
फिर ख़मोशी क्या किसी की, बोलना क्या ?
मेरा घर शीशे का है , सब कुछ अयाँ है - ज़ाहिर , प्रकट
दर किसी के वास्ते अब खोलना क़्या ?
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय अनुराग भाई , अपका बहुत बहुत आभार । आपने बहुत बढिया सुझाव दिया है , कुछ तो बहुत अच्छे हैं उन्हे मै स्वीकार करता हूँ । कहीं कहीं मै जो कहना चाहता हूँ वह नही कह पाये हैं फिर भी प्रयास बहुत अच्छा है । सबके बात कहने के अंदाज़ अलग अलग होते हैं , फर्क़ इसी बात का है बस । इस्लाह के लिये आभार आपका ।
अपने हक़ में खूब बोला, कुछ हुआ क्या ?
और अपने आप को समझा सका क्या ?
तर्क भीतर तक तुझे ख़ुद धो सका क्या ? – हिंदी उर्दू में ‘तर्क’ का मतलब अलग है
खूब तड़पा , खूब आँसू भी बहाया
देख तो लो कोई पत्थर नम हुआ क्या ?
मिन्नतें क्या काम आई पर्वतों से
पर्वतों से मिन्नतें आखिर भला क्यों
तेरी ख़ातिर वो कभी थोड़ा झुका क्या ?
जब बहलना है हमें फिर सोचना क्यों
साज या आवाज क्या है, झुनझुना क्या ?
लोग सुन्दर लग रहे थे देखने में
काश! हँस पाते कभी, लेकिन बुरा क्या ?—मुस्कराना, हँसाना साहित्य में एक ही बात है
सरसराती इन हवाओं का फ़साना
आती-जाती सांसों में, तुमने सुना क्या ?
मैंने यादों से बहुत पीछा छुडाया
आना-जाना उन ख्यालों का रुका क्या ?
घर मेरा शीशे का है, सब कुछ अयाँ है
दर किसी के वास्ते अब खोलना क़्या ?
ख़्वाब सारे तीर, ख़ंजर, बम के आये
देख तो इंसान अब वो मर गया क्या ?
जब नुक़ूशे शक़्ल सब कुछ बोलते हैं
फिर ख़मोशी क्या, किसी का बोलना क्या ?
--- वाआआआआआअह क्या बात है गज़ल खूबसूरत हुई है, थोडा बहुत हेर-फेर कर दें तो और रवानी आ जाये.
नज़रे–सानी की जरूरत है मोहतरम, माजरत के साथ. मैंने भी कोशिश की है लेकिन ख्याल आपके हैं आप और अच्छा कह सकते हैं, गुंजाईश है
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , आपकी स्नेहिल सराहना के लिये आपका दिली शुक्रिया ।
आदरणीय राम भाई , गज़ल की तारीफ़ का बहुत शुक्रिया ।
आदरणीय आशुतोष भाई , उत्साह वर्धंन लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय खुर्शीद भाई , आप जैसे ग़ज़ल कार से सराहना पाना मेरे लिये तमगे के समान है , आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरणीय बागी भाई , आपकी सराहना ने गज़ल कहना सार्थक कर दिया , हौसला अफज़ाई के लिये आपका दिली शुक्रिया ।
आदरणीय जितेन्द्र भाई , आपकी सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ।
अनुज भंडारी जी
जब आपकी कलम बोलती है तो फिर बोलती है -
जब नुक़ूशे शक़्ल सब कुछ बोलते हैं --
फिर ख़मोशी क्या किसी की, बोलना क्या ?
मेरा घर शीशे का है , सब कुछ अयाँ है -
दर किसी के वास्ते अब खोलना क़्या ?
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