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मुझे शूली चढ़ा दो तुम मुझे फाँसी लगा दो अब!
ये दिन जब से चला तब से पता है आज आना था!!--कोई मतलब नहीं निकल रहा है
मुझे उस पर भरोसा था वो ऐसी हो नहीं सकती!
मगर उस बेवफा को भी जमाने को हँसाना था!!-- tukbandi hai
आदरणीय राहुल डांगी साहब ,काफ़ी सारे भाव समेटे हुये काफ़ी तवील ग़ज़ल है |बहुत बहुत बधाई आपको |लंबी बह्र और लंबी ग़ज़ल होने से कहीं कहीं भावों का कसाव बिखर रहा है |सदर और इब्तिदा में बार बार कि का प्रयोग अखरता है |अरूज़ो-ज़रब में में आगे एक हर्फ़ बढ़ाया जा सकता है लेकिन हश्वैन में खटकता है ,लय बाधित होती है|देखें ' मेरा तो काम पढ़ाना था!! थे और मैं एक था पांडव|
वैसे हर शेर हज़ार रंग बिखेरता हुआ है |ग़ज़ल बहुत पसंद आई |ढेरों दाद कबूल फरमावें |सादर
मतला में यदि उला को सानी और सानी को उला कर दिया जाय तो कहन और निखर कर आएगा,
//मैनें तो लाख कोशिश की थी सब कुछ टाल देने की ने की दोस्त!//
//जिसे मेरा सहारा था उसे जिसे मुझको बचाना था!!//
//दुशासन थे शकूनी थे, थे दुर्योधन मेरे दुश्मन!//
बार बार थे , मिसरा को कमजोर कर रहा है, इसको देखिये जरा .
कुल मिलाकर यह कहना है कि हर शेर को तनिक कसने की जरुरत है, इस प्रयास पर बहुत बहुत बधाई .
" बहुत खूब ! इस सुंदर गजल हेतु बधाई स्वीकारें । " |
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