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गजल- वरना मेरा इबादत से रिश्ता नहीं!

212 212 212 212

मैं तो मरता हुँ पर प्यार मरता नहीं!
इश्क का भूत मन से निकलता नहीं!!

हाल क्या हो गया देख रो रो मेरा!
सबको दिखता है पर तुझको दिखता नहीं!!

किस गली किस शहर में कहाँ पे है तू!
दिल मेरा मुझसे अब ओर थमता नहीं!!

हो जो बस में मेरे तो मैं नफरत करूं!
क्या करूं आपसे प्यार घटता नहीं!!

लोग कहते है मौसम सुहाना है अब!
सबको लगता है पर मुझको लगता नहीं!!

साँस आती नहीं उसको देखें बिना!
उसको देखें बिना चैन मिलता नहीं!!

वो जो है सामने तो खुदा सामने !
वरना मेरा इबादत से रिश्ता नहीं!!

इतना रोता है 'राहुल' जो, क्या बात है!
बात यह है कि वो बस समझता नहीं!!

मौलिक व अप्रकाशित!

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 3, 2015 at 8:16pm

आदरणीय राहुल भाई , बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है , आपको मेरी दिली बधाइयाँ ।

Comment by Rahul Dangi Panchal on January 2, 2015 at 8:18pm
मेरे आदरणीय मिथिलेश वामनकर सर जी मैं आपके सुझाव पर अवश्य गौर करुंगा सादर धन्यवाद!

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 2, 2015 at 7:55pm
आदरणीय राहुल भाई बहुत प्यारी ग़ज़ल हुई है गुनगुनाने में आनंद आया। इस प्रस्तुति पर बधाई। एक सुझाव है इतनी प्यारी ग़ज़ल में इश्क़ का भूत शब्द जम नहीं रहा है ।
मतले में ही... मैं तो मरता हूँ को "लोग मरते है पर प्यार मरता नहीं "कर सकते है। बस मतला थोड़ा सा बदल ले तो बेहतरीन ग़ज़ल निकलकर आएगी। सादर। बाकि गुणीजनों की टिप्पणी की प्रतीक्षा करे।
Comment by Hari Prakash Dubey on January 2, 2015 at 6:40pm

 सुन्दर प्रयास आदरणीय राहुल जी ,हार्दिक बधाई !

Comment by Rahul Dangi Panchal on January 2, 2015 at 4:56pm
आदरणीय गुनीजनों से विनती है कि क्रपया मेरी छोटी छोटी कमीयों को भी अनदेखा न किया करें! मुझे मेरी हर कमी से अवगत कराया करें! जिससे अच्छा लिख सकूं ! हम नये सीखने वालो को हौसला और आलोचना बराबर मात्रा में चाहिए! सादर नमन!
Comment by Rahul Dangi Panchal on January 2, 2015 at 1:44pm
आदरणीय khursheed khairadi जी सादर धन्यवाद स्वीकार करें!
Comment by khursheed khairadi on January 2, 2015 at 1:35pm

आदरणीय डांगी साहब ,सुन्दर ग़ज़ल हुई है | सादर अभिनन्दन |

Comment by Rahul Dangi Panchal on January 2, 2015 at 1:26pm
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी सादर धन्यवाद! मैं आपके सुझाव पर अवश्य गौर करुंगा! सादर!
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 2, 2015 at 1:21pm

दागी जी

बड़ी जोरदार शायरी हुयी है i आपको बधाई i  शुरू में आपका संवाद -सबको दिखता है पर तुझको दिखता नहीं --यहाँ संबोधन तुम करके है i बादमे यह तुम  'वो' हो जाता है-- सांस आती नहीं उसको देखे बिना  i यह बिखराव क्यों ? तुम कहा था तो तुम ही लेकर चलते  तो ज्यादा मजा आता  i मगर फिर भी बहुत अच्छी सोच आपकी रही है i  सस्नेह i

Comment by Rahul Dangi Panchal on January 2, 2015 at 10:48am
आदरणीय सोमेश जी सादर धन्यवाद स्वीकार करें!

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