1222 / 1222 / 1222 / 1222
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ग़ज़ल ने यूँ पुकारा है मेरे अल्फाज़, आ जाओ
कफ़स में चीख सी उठती, मेरी परवाज़ आ जाओ
चमन में फूल खिलने को, शज़र से शाख कहती है
बहारों अब रहो मत इस कदर नाराज़ आ जाओ
किसी दिन ज़िन्दगी के पास बैठे, बात हो जाए
खुदी से यार मिलने का करें आगाज़, आ जाओ
भला ये फ़ासलें क्या है, भला ये कुर्बतें क्या है
बताएँगे छुपे क्या-क्या दिलों में राज़, आ जाओ
हमारे बाद फिर महफिल सजा लेना ज़माने की
तबीयत हो चली यारों जरा नासाज़, आ जाओ
अकीदत में मुहब्बत है सनम मेरा खुदा होगा
अरे दिल हरकतें ऐसी ज़रा सा बाज़ आ जाओ
मरासिम है गज़ब का मौज़ से, साहिल परेशां है
समंदर रेत को आवाज़ दे- ‘हमराज़ आ जाओ’
ख़ुशी ‘मिथिलेश’ अपनी तो हमेशा बेवफा निकली
ग़मों ने फिर पुकारा है- ‘मिरे सरताज़ आ जाओ’
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
अर्कान – मुफाईलुन / मुफाईलुन / मुफाईलुन / मुफाईलुन
वज़्न – 1222 / 1222 / 1222 / 1222
Comment
आदरणीय मिथिलेश भाई की इस ग़ज़ल के हवाले से अत्यंत सार्थक चर्चा हुई देख रहा हूँ. ऐसी चर्चाएँ हर लिहाज से उचित हैं. लेकिन जिन विन्दुओं पर यह चर्चा रह-रह कर जाने लगती है, उसके प्रति संयत होने की आवश्यकता है जिसपर मैं अपनी बातें थोड़ा आगे करता हूँ.
मैंने भी कई दिन पूर्व इस पोस्ट पर ग़ज़ल की भाषा से सम्बन्धित बातें की थीं. उस समय चर्चा का लिहाज इसी विन्दु पर केन्द्रित था. अभी देख रहा हूँ कि उत्साही सदस्य भाई अनुराग प्रतीक ने मेरी टिप्पणियों में उद्धृत विन्दुओं पर अपनी आंशिक सहमति जतायी है. उनकी सहमति के आंशिक होने का कारण क्या है, वे नहीं बता पाये, यह अलग बात है. आजकल यह अंदाज़ बहुत प्रचलित हो गया है, जो हर लिहाज से असंयत और अटपटा है. इतना केयरफ्री होना किसी भी सूरत में उचित नहीं है. यदि कोई विन्दु साझा करना आवश्यक है और उन विन्दुओं के आलोक में आंशिक सहमति बन रही है तो यह समझा जा सकता है. अन्यथा सहमतियों में ऐसी आंशिकता का होना प्रस्तुत किये गये विन्दुओं को ख़ारिज़ करने के समान माना जाता है. हालाँकि, वे इस मंच पर अभी नये हैं, उन्हें यहाँ की कई बातें और परिपाटियाँ समझते-बूझते अवश्य ही समय लगेगा. अलबत्ता, इस मंच पर हो रही चर्चाओं की भाषा और परस्पर सम्बोधनों के बाबत उन्हें यह अवश्य भान हो चुका होगा कि यहाँ चर्चाएँ का लिहाज क्या होता है.
इस मंच पर अचानक वरिष्ठों, जानकारों या मार्गदर्शियों की उपस्थिति इर्रेगुलर हो गयी है. इसकारण, इस मंच पर कई नये सदस्य जिस ढंग के सलाह-सुझाव वाले वातावरण की अपेक्षा कर रहे हैं या होंगे, संभव है, वैसा नहीं दिख रहा होगा. किन्तु, सभीकी हालिया मसरूफ़ियत ही मुख्य कारण है. अन्यथा वे आश्वस्त रहें. यह अच्छा है कि आदरणीय तिलकराज कपूर जी तथा वीनस भाई का आगमन अरूज़ और इससे सम्बन्धित पुस्तकों पर सार्थक चर्चा का कारण बना है.
एक बात मैं स्पष्ट रूप से निवेदन करना चाहूँगा जिसके प्रति आदरणीय तिलकराजजी ने भी इशारा किया है. कोई किताब वस्तुतः हिन्दी ग़ज़ल को लेकर गंभीर नहीं है. कई तो मात्र देवनागरी लिपि में हैं, अन्यथा उनमें हिन्दी भाषा या सम्बन्धित व्याकरण के नज़रिये से कुछ भी नहीं है. ऐसी पुस्तकों का क्या और कितना औचित्य है यह सरलता से समझा जा सकता है. कुछ पुस्तकें वाकई अच्छी हैं लेकिन सम्पूर्णता में नहीं हैं. उस हिसाब से आदरणीय तिलकराजजी का कहना एकदम से सही है कि चूँकि इस मंच पर ग़ज़ल के व्याकरण या अरूज़ पर कई चरणबद्ध आलेख हैं. उनका ही अध्ययन क्यों न किया जाय ? ऐसी कौन सी बात है जो किताबों में लिखे होने पर तो समझ में आ सकती है लेकिन आलेखों के माध्यम से पढ़ी जाय तो समझने में दुरूह लग रही हैं ? जबकि इन आलेखों के लेखक इस मंच पर न केवल उपलब्ध हैं, समय-समय पर संवाद भी बनाते रहते हैं ताकि किसी शंका का समाधान होता रहे. सर्वोपरि, इसके बावज़ूद किसी लेखक ने स्वयं को ग़ज़लों या अन्यान्य काव्य-विधाओं का सर्वज्ञाता नहीं कहा है. सभी समवेत सीख रहे हैं.
क्या किताबों के नाम के आदान-प्रदान से ज्ञान मिल जायेगा ? मुझे तो ऐसा एकदम नहीं लगता.
इन विषयों पर आदरणीय तिलकराजजी ही नहीं, बल्कि भाई वीनस के भी बड़े संयत और स्पष्टभाषी आलेख हैं. क्या उनको कायदे से पढ़ने की नये सदस्यों ने कोशिश की है ? यदि हाँ, तो फिर उतना बहुत नहीं है ? आगे रचनाकर्म हो. तमाम टिप्पणियों से कई और महत्त्वपूर्ण विन्दु लगातार समझ में इज़ाफ़ा करते जायेंगे.
और, भाई वीनस एक मुकम्म्ल किताब का प्रयास कर रहे हैं. उस किताब की प्रतीक्षा हम सभी को है. कारण कि, अबतक उपलब्ध किताबों में व्यापी हुई अस्पष्टता का बहुत हद तक निवारण अपेक्षित है. ऐसा मैं इसलिए कह पा रहा हूँ कि वीनस भाई आजके ग़ज़लकारों के सम्पर्क में हैं और अपनी समझ साझा करते रहते हैं. वर्ना, इसी मंच पर ऐसे भी सदस्य भी हैं, भले वे आज उतने सक्रिय नहीं हैं, जो इस मंच की सदस्यता लेने के पूर्व ही अरूज़ पर अपनी लिखी किताबों से लाइम-लाइट में आ चुके थे. लेकिन उन साहबानों की ग़ज़लें सिनाद आदि जैसे दोषों छोड़िये, बिना काफ़ियों की होने के कारण ख़ारिज़ हुई हैं. कहन और ग़ज़लियत तो ख़ैर सदा ही से लगातार अभ्यास की बातें हैं.
मेरा इशारा क्या है, विश्वास है, स्पष्ट है.
मैं समझता हूँ कि मैंने अपनी बातें स्पष्ट कीं. यह अवश्य है कि ऑफ़िशियली बहुत ही व्यस्त रहने के कारण इस मंच पर अपनी लगातार उपस्थिति दर्ज़ नहीं करा पा रहा हूँ. रचनाकर्म और बात है.
सादर
कि़ताब को लेकर अरसा पहले वीनस से बात हुई थी कि एक समग्र प्रामाणिक पुस्तक हिन्दी में आवश्यक है। इस पर उनका प्रयास भी जारी है। आशा है जल्दी ही आयेगी।
आप ग़ज़ल के छंद विधान तथा तकनीकी जानकारी पर डॉ आज़म की लिखी पुस्तक ''आसान अरूज़'' शिवना प्रकाशन से प्राप्त कर सकते हैं। इसी प्रकार राम प्रसाद महर्षि जी की कि़ताबों के लिये प्रयास करें।
मिथिलेश जी
आप अपना ई-मेल आई डी मुझे भेज दें। मैं आपको एकजाई सभी बह्र और उनकी मुज़ाहिफ़ शक्लें भेज देता हूँ। यह तो एक हल हुआ। दूसरा यह कि मैं प्रयास करता हूँ यहीं वह जानकारी देने का।
गुलज़ार जी ने मीना कुमारी की ग़ज़लें प्रस्तुत करते हुए कहा कि कहने के बाद ग़ज़ल अवाम् (उनका आशय श्रोता/पाठक से था) की हो जाती है। आपने अब तक कितनी ही ग़ज़ल सुनी और सराही होंगी। ग़ज़ल में रदीफ़ काफि़या और बह्र का प्रचलित निर्वाह भर हो जाये इतना पर्याप्त होता है; ग़ज़ल सराही जाती है कलाम से, कहन से। कहन पर केन्द्रित हों, वाक्य विन्यास पर ध्यान दें, कहन की साहित्यिक मर्यादा पर ध्यान दें। यही सब आपकी पहचान बनायेगा। फिर कोई आपको किसी शेर में दोष बताये तो उससे अच्छी तरह समझें और भविष्य में ध्यान रखें। एक-एक कर दोष समझ आते जायेंगे। किसी भी कि़ताब में सभी दोष नहीं दिये गये हैं। अधिकॉंश कि़ताब सतही जानकारी ही देती हैं।
अब आप आपके मत्ले के शेर को ही देखें:
ग़ज़ल ने यूँ पुकारा है मेरे अल्फाज़, आ जाओ
कफ़स में चीख सी उठती, मेरी परवाज़ आ जाओ
को यूँ भी कहा जा सकता है:
ग़ज़ल दिल से बुलाती है, नये अल्फ़ाज़ आ जाओ
नये अंदाज़ आ जाओ, नयी परवाज़ आ जाओ।
अंतर को आप स्वयं समझने का प्रयास करें।
आदरणीय मिथिलेश भाई , यही बात जो आपको आ. तिलकराज भाई कह रहे हैं , मैने भी चेटिंग बाक्स मे आपसे कही थी ,
एक चुटकुला याद आ रहा है , शायद काम आये -
एक मुहल्ले में कई टेलरिंग शाप थे , एक मे लिखा था , अमेरिका का सबसे अच्छा , दूसरे मे जापान का सबसे अच्छा , तीसरे मे चीन का सबसे अच्छा टेलर , और ऐसे ही बाक़ी मे और देशों के नाम लिखे थे । बस एक टेलर अपवाद था , उसने लिखा था , इस मुहल्ले का सब से अच्छा टेलर । समझदार सभी यहीं कपड़े देते थे ।
आदरणीय तिलक राज कपूर सर, आपका कहना सही है लेकिन एकाध किताब भी तो पढना जरुरी है. हम लोग पूरी तरह से इन्टरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आश्रित है. इस कारण कई बार चर्चा में सम्मिलित होने से झिझकते है. आपकी ग़ज़ल की कक्षा में बह्रे मुतकारिब से बनने वाली मुजाहिफ बह्रें अंतिम अध्याय है. उसके बाद अन्य बह्रों की मुजाहिफ शक्ल नहीं है. इसलिए किताबों के बारे में ख़याल आया है. एक और बात आ. राम प्रसाद शर्मा ‘महर्षि’ जी की किताबों का उल्लेख इन्टरनेट पर बहुत मिला है लेकिन कहीं भी उनके प्रकाशक का नाम नहीं है. मैं लम्बे समय से ढूंढ रहा हूँ.
आपकी ग़ज़ल की कक्षा से बहुत सीखा है और लाभ लिया है उसके लिए सदैव आपका आभारी रहूँगा. आज आप मेरी रचना पर उपस्थित हुए तो स्वयं को धन्य मान रहा हूँ. यद्यपि आपकी उपस्थिति रचना से इतर टिप्पणी पर हुई है, तथापि मेरे घर में आये राम की तर्ज़ पे आनंदित और अभिभूत तो हूँ ही. नमन.
हिन्दी में छपी कितनी भी ग़ज़ल लेखन की पुस्तकें आप पढ़ लें, कुछ न कुछ विवाद की स्थिति बनी ही रहेगी। अब तक छपी कोई भी पुस्तक पूर्ण नहीं है। कई पुस्तकें तो स्पष्ट उदाहरण रहित हैं। कुछ पुस्तकें तो लगभग उर्दू से लिप्यांतरित हैं और हिन्दीभाषियों के लिये वो सहजता प्रस्तुत नहीं करती जो आवश्यक है।
इन्फ़र्मेशन टैक्नालाजी की दुनिया में कहा जाता है जितनी अधिक जानकारी उतना अधिक भ्रम। ऐसी स्थिति में इस मंच पर जितनी जानकारी ग़ज़ल विषय पर उपलब्ध है उसके आधार पर ग़ज़ल कहना आरंभ करना पर्याप्त है। फिर दोष बताने वाले बताते रहेंगे और यह जानकारी बढ़ती रहेगी।
जल्द ही यहीं पर जानकारी देता हूँ
संभव हुआ तो प्रकाशक का मोबाइल नंबर भी दे दूंगा
आदरणीय वीनस भाई जी आपने बड़ी अच्छी बात कही -
\\भाषा विज्ञान में भी मान्यता पर विशेष बल दिया जाता है न कि नियम पर ....
जो सर्वमान्य हो जाता उसके लिए नियम को सामने नहीं खड़ा किया जाता \\
इससे थोड़ी राहत तो मिली है.
दूसरा आपने बहुत सी उपयोगी किताबों की जानकारी भी शेयर की इनकी बहुत जरुरत महसूस हो रही थी हम नए विद्यार्थियों को.
इसके लिए आभार.... हार्दिक धन्यवाद.
आपने आ. राम प्रसाद शर्मा ‘महर्षि’ जी की जिन किताबों का उल्लेख किया है उनके प्रकाशक या कहाँ उपलब्ध होगी? कृपया बताने का कष्ट करें... लम्बे समय से दूंढ़ रहा हूँ ---- ग़ज़ल लेखन कला (२००५) , व्यवहारिक छंद शास्त्र (२००६) , ग़ज़ल और ग़ज़ल की तकनीक (२००९) ग़ज़ल प्रवेशिका (महर्षि जी वाली )
कल ही एक मित्र से ग़ज़ल की बदलती "भाषा" पर चर्चा हो रही थी
की शब्द के स्थान पर करी शब्द के ग़लत इस्तेमाल पर पर मैं कुछ कह रहा था ...
आज मोबाईल पर फेसबुक देख रहा था तो एक जगह फेसबुक पर लिख कर आया...
फलां साहब ने आपके लेख पर एक टिप्पणी करी है
जब कोई अशुद्ध शब्द इस सह तक बोलचाल में समाहित हो जाए तो, अब बताईये क्या किया जाए ???
अब सब अपनी ग़ज़ल में करी का इस्तेमाल करने ही लगें तो कहाँ तक ख़ारिज किया जा सकता है ?
जहाँ तक देवनागरी में नुक्ते के इस्तेमाल की बात है उर्दूदां जानते हैं कि ह उर्दू में दो प्रकार से है छोटी हे और बड़ी हे फिर तो निश्चित रूप से देवनागरी में ह दो तरह से होना चाहिए एक - बिना नुक्ते के दूसरा - नुक्तेदार
मगर क्या ऐसा कुछ हम लोगो ने देखा है ? कितने लोग देवनागरी में लिखते समय ह में नुक्ता लगाते हैं ????
भाषा विज्ञान में भी मान्यता पर विशेष बल दिया जाता है न कि नियम पर ....
जो सर्वमान्य हो जाता उसके लिए नियम को सामने नहीं खड़ा किया जाता
तरह शब्द जोकि हरा के हम वज्न है, इसे तर्ह अनुसार लाल के हमवज्न शायद ऐसी ही किसी मजबूरी के तहत तो जाइज ठहराया गया था ...
कोई मुझे बताये कि खामोशी को खमोशी (हमारा के हमवज्न) और खामुशी (आपका के हमवज्न) किस नियम के तहत जाइज माना जाता है?
ग़ज़ल की भाषा के इन जैसे सैकड़ों प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए मैंने सैकड़ों किताबें पढ़ डाली
मगर किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा ..
जो किताबें पढीं हैं उनमें से कुछ के नाम यहाँ पेश कर रहा हूँ,
इनमें से किसी किताब में कोई ख़ास बात अगर मुझसे छूट गयी हो जिससे इन सवालों के जवाब मिल सकें तो जानकार इंगित करें मैं फिर से पढूंगा,,, शायद किसी नतीजे पर पहुँच सकूं
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पुरानी हिंदी (१९१८) - चंद्रधर शर्मा गुलेरी
हिन्दी (१९२२) - बदरीनाथ
हिंदी उर्दू और हिन्दुस्तानी (१९३२) - पद्य सिंह
शेर -ओ- शाइरी (१९४८) - अयोध्या प्रसाद गोयलीय
शेर -ओ- सुखन भाग - १ से ५ (१९५१-१९५४) - अयोध्या प्रसाद गोयलीय
दक्खिनी हिन्दी (१९५२) - डॉ. बाबू राम सक्सेना
उर्दू साहित्य का इतिहास (१९५६) - डॉ. सरला शुक्ल
शाइरी के नए दौर भाग - १ से ५ (१९५८-१९६१) - अयोध्या प्रसाद गोयलीय
शाइरी के नए मोड भाग - १ से ५ (१९५८-१९६३) - अयोध्या प्रसाद गोयलीय
उर्दू भाषा और साहित्य (१९६२) - रघुपति सहाय ‘फिराक’
हिन्दी उद्भव विकास और रूप (१९६५) - डॉ. हरदेव बाहरी
आधुनिक हिन्दी कविता में उर्दू के तत्व (१९७३) - डॉ. नरेश
नागरी लिपि उद्भव और विकास (१९७८, शोध ग्रन्थ) - डॉ. ओम प्रकाश भाटिया
उर्दू काव्य शास्त्र में काव्यांग (१९८०) - डॉ. राम दास 'नादार'
दक्खिनी का गद्य साहित्य (१९८२ शोध ग्रन्थ) - डॉ. वेड प्रकाश शास्त्री
ग़ज़ल एक अध्ययन (१९८३) - चानन गोविन्द पुरी
उर्दू शायरी नक्श और रंग (१९८५) - बाल कृष्ण
उर्दू साहित्य एक झलक (१९८६) - फजले इमाम
ग़ज़ल का व्याकरण (१९९६) - डॉ. कुँवर बेचैन
समकालीन हिंदी काव्य धारा और
हिंदी ग़ज़ल (शोध ग्रन्थ, १९९९) - डॉ. बहादुर राम
हिन्दी ग़ज़ल की नई दिशाएं (२०००) - सरदार मुजावर
ग़ज़ल : सौंदर्य मीमांसा (२००२) - डॉ. अब्दुर्रशीद ए. शेख
ग़ज़ल लेखन कला (२००५) - राम प्रसाद शर्मा ‘महर्षि’
व्यवहारिक छंद शास्त्र (२००६) - राम प्रसाद शर्मा ‘महर्षि’
द्वारिका परसाद ‘उफ़ुक़’ (शोध ग्रन्थ)(२००८) - डॉ.कोमल भटनागर
ग़ज़ल और ग़ज़ल की तकनीक (२००९) - राम प्रसाद शर्मा ‘महर्षि’
ग़ज़ल प्रवेशिका (२०११) - राजेंद्र पराशर
हिन्दी ग़ज़ल उद्भव और विकास (शोध ग्रन्थ २०१०) - डॉ. रोहिताश्व अस्थाना
उर्दू शाइरी का मिजाज (२००३) - वजीर आगा
'धर्मयुग' साप्ताहिक (१७ अक्टूबर १९७६, २१ जनवरी
१९७९, १६ नवंबर १९८०) - धर्मवीर भारती
'सारिका' (मई १९७६) - ------
‘गुफ्तगू’ त्रैमासिक (२००४ से अब तक)
(राम प्रसाद शर्मा ‘महर्षि’ के आलेख) - नाजिया गाज़ी
‘हिन्दुस्तानी’ त्रैमासिक
उर्दू विशेषांक (अप्रैल जून २००६) - कैलाश गौतम
‘सरस्वती सुमन’ त्रैमासिक
(ग़ज़ल विशेषांक,जन.-मार्च २०११) - डा. आनंद सुमन सिंह
‘अभिनव प्रयास’ त्रैमासिक (२०११)
(मुक्तक रुबाई विशेषांक) - अशोक अंजुम
नया ज्ञानोदय ग़ज़ल विशेषांक जनवरी २०१३ – रवींद्र कालिया
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