1222 / 1222 / 1222 / 1222
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ग़ज़ल ने यूँ पुकारा है मेरे अल्फाज़, आ जाओ
कफ़स में चीख सी उठती, मेरी परवाज़ आ जाओ
चमन में फूल खिलने को, शज़र से शाख कहती है
बहारों अब रहो मत इस कदर नाराज़ आ जाओ
किसी दिन ज़िन्दगी के पास बैठे, बात हो जाए
खुदी से यार मिलने का करें आगाज़, आ जाओ
भला ये फ़ासलें क्या है, भला ये कुर्बतें क्या है
बताएँगे छुपे क्या-क्या दिलों में राज़, आ जाओ
हमारे बाद फिर महफिल सजा लेना ज़माने की
तबीयत हो चली यारों जरा नासाज़, आ जाओ
अकीदत में मुहब्बत है सनम मेरा खुदा होगा
अरे दिल हरकतें ऐसी ज़रा सा बाज़ आ जाओ
मरासिम है गज़ब का मौज़ से, साहिल परेशां है
समंदर रेत को आवाज़ दे- ‘हमराज़ आ जाओ’
ख़ुशी ‘मिथिलेश’ अपनी तो हमेशा बेवफा निकली
ग़मों ने फिर पुकारा है- ‘मिरे सरताज़ आ जाओ’
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
अर्कान – मुफाईलुन / मुफाईलुन / मुफाईलुन / मुफाईलुन
वज़्न – 1222 / 1222 / 1222 / 1222
Comment
भला ये फ़ासलें क्या है, भला ये कुर्बतें क्या है
बताएँगे छुपे क्या-क्या दिलों में राज़, आ जाओ...बहूत ही सुन्दर रचना आदरणीय मिथिलेश जी , हार्दिक बधाई आपको !
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