धर्म के प्रति प्रगाढ़ आस्था के कारण ही सुधा आज घर द्वार सब त्याग गुरू आश्रम चली आई ।
"सुना है गुरूदेव आज रात खास आयोजन करने वाले है । जाने आज किसका भाग्योदय होने वाला है? " आश्रम में सुगबुगाहटें जारी थी ।
लगभग १२ बजे सभा गृह में सब गुरू सेविकायें उपस्थित थी कि सहसा गुरूदेव का आगमन हुआ । पीताम्बर धारण किये हुए, सिर पर मोर मुकुट सजाये हुए आज गुरूदेव कृष्ण रूप में रास के लिए राधा का चयन करने वाले थे ।
कृष्ण रूपी गुरूदेव जब सुधा के सामने ठिठके तो उसका हृदय रो उठा ।गनीमत यह हुई कि गुरु -कृष्ण ने आगे बढ़ कर एक अन्य सेविका को अपने अंग से लगाया और अंदर कक्ष में चले गये ।सुधा तत्क्षण अपने घर वापस लौट आई ।
कान्ता राॅय
भोपाल
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय कांता राय जी बिहार में एक बाप ने अपनी बेटी के साथ बलात्कार किया तो क्या पुरे देश के बाप दोषी हो गएI जिन लोगो ने ऐसा किया वो जेल में हैI अपने देश में क्या विडम्बना है लोग भगवान( कृष्ण जी) का नाम बदनाम करके खुद नाम कमा रहे हैI सेकुलर का मतलब समानता है न की अपनी आस्था को दांव पर लगाकर ये साबित करना की में ज्यादा सेकुलर हुI ये कोरी बेवकूफी होगीI शुक्रिया
//लघुकथा की नायिका वापस उस क्षण नहीं मुड़ी, वो तो उसका नंबर तत्क्षण नहीं लगा या कहे कि उसका कॉल ड्राप हो गया और नंबर किसी और का लग गया वर्ना .. //
हा हा हा हा... . सही बात ..
लेकिन, भइया, इस प्रस्तुति के आलोक में मेरे प्रश्न वहीं हैं. ऐसे कई प्रश्नों का उत्तर न मिलना या मिल पाना ही ऐसे वातावरण और ऐसी घटनाओं का कारण बन रहा है.
//वो तो भला हो कि लघुकथा ने नायिका सुधा को वापस मुड़ गयी. वर्ना ’अभिभूत समुदाय’ की एक सदस्य वह भी होती और ’बाबाजी’ के नित-नये दैहिक-भौतिक चमत्कारों की साक्षी बनती रहती. //
ना ना ना, लघुकथा की नायिका वापस उस क्षण नहीं मुड़ी, वो तो उसका नंबर तत्क्षण नहीं लगा या कहे कि उसका कॉल ड्राप हो गया और नंबर किसी और का लग गया वर्ना ......
इधर पचीसेक वर्षों में ही यह परिपाटी आम हुई है. और इन्हीं पचीसेक वर्षों में दो-एक पूरी पीढ़ियाँ जवान हुई है. इन्हीं पीढ़ियों ने ऐसे-ऐसे लफंदरों को बाबा-गुरु के नाम से सुनना-जानना शुरु किया है. यही लफंदर लोग आजके लोगों के लिए बाबा-गुरु के पारिभाषिक रूप हो गये हैं. अन्यथा ऐसे बाबा अबतक कहाँ थे ? क्यों इधर बीस-तीस वर्षों में ही अचानक ऐसों की बन आयी है ? सही कहा गणेश भाई ने, ताली एक हाथ से कभी नहीं बजती.
’समोसा-चटनी’ खाने के नाम पर अभिभूत हुए जाते हम लोग, ’समोसा-चटनी’ ही क्यों ’इडली’ तक खिलाये जाते हैं. क्या आश्चर्य ?
हम स्वयं कितना अध्ययन करने के आग्रही हैं ? हमने क्या कभी जानना चाहा है कि छांदोग्यपनिषद में क्या है ? कठोपनिशद में आखिर निवेदित क्या हुआ है ? योगसूत्र के सूत्र कहते क्या हैं ? पंचदशी के खण्डों में उद्धृत क्या हुआ है ? इन्हें छोड़िये, गीता में ही कुल कितने श्लोक हैं ? नाः.. ये सब कौन करे ? हम अपनी नौकरी, अपने घर-बार देखें या यही सब बैठ कर घोंटें ?
फिर मानसिक खोखलेपन का सीधा-साधा उपाय है न ! बाबाजी लोगों का मंतर ! इन बाबाजी लोगों की मार्केटिंग का कन्ज्यूमर बनना अधिक सरल है ! है न ? फिर हम दोष इन ’दाढ़ी बढ़ाऊ’ धूर्त व्यापारियों को क्यों दें ? एसेटिक लाइफ़ का मतलब क्या होता है इसकी जानकरी हमें स्वयं ही नहीं है, तो फिर इन लफंदरों के मकड़जाल और उनकी सम्मोही विलासिता से अचंभित-आतंकित हम आखिर क्यों न हों ?
वो तो भला हो कि लघुकथा ने नायिका सुधा को वापस मुड़ गयी. वर्ना ’अभिभूत समुदाय’ की एक सदस्य वह भी होती और ’बाबाजी’ के नित-नये दैहिक-भौतिक चमत्कारों की साक्षी बनती रहती.
ऐसी संवेदनशील ही नहीं जागरुक करती लघुकथा के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीया कान्ताजी.
शुभेच्छाएँ
बहुत सही कहा आदरणीय बागी सर, बिलकुल सटीक टिप्पणी - कहना मुश्किल है कि कौन अधिक दोषी ! थाली परोसने वाला या भोग लगाने वाला.
ताली एक हाथ से नहीं बजती, हम थाली में व्यंजन परोसते हैं तो कथित गुरु भोग लगाते हैं, कहना मुश्किल है कि कौन अधिक दोषी ! थाली परोसने वाला या भोग लगाने वाला.
अच्छी लघुकथा आदरणीया कांता रॉय जी.
सुन्दर , आज के सत्य को ब्यान करती सार्थक लघुकथा ,बधाई आदरणीया कांता जी! सादर
सुंदर कथा. पाखंडी साधुओ पर करारा प्रहार. बधाई आदरणीया कांता जी
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