मारते हो पशु
फैलाते हो हिंसा
'नीच' जाति के हो न
असभ्य कहीं के
कभी नहीं सुधरोगे
इतिहास गवाह है...
मारते तो तुम भी हो
'शिकार' के नाम पर
तुम तो 'नीच' न थे
याद है ?
वो शब्द भेदी बाण
जो असमय वरण किया था
अंधों के पुत्र का,
भागे थे हिरण के पीछे
चर्म चाहिए था न
इतिहास गवाह है...
हिंसक तो तुम दोनों ही हो
एक शौक के लिए
तो दूजा भूख के लिए
हाँ जी हाँ, बिलकुल
इतिहास गवाह है ।
(मौलिक व अप्रकाशित)
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Comment
वाह सर जी बहुत खूब वाह
आदरणीय बागी साहब ,उम्दा रचना हुई है |सादर अभिनन्दन |
सराहना हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीया सविता मिश्रा जी.
आदरणीय हरिप्रकाश दुबे जी, आपकी सराहना और उत्साहवर्धन हेतु बहुत बहुत आभार.
आदरणीया प्रतिभा त्रिपाठी जी, रचना पर आपकी बहुमूल्य टिप्पणी का स्वागत है, सराहना हेतु बहुत बहुत आभार.
आदरणीय चोट और कचोट का सुन्दर समीकरण , वाह !!!!!!!!!!! लग गया बाण निशाने पर ...
आदरणीय भाई मिथिलेश जी, जिस मनोदशा के मध्य कविता सृजित होती है यदि उस मनोदशा तक पाठक की पहुँच हो जाय तो वह रचना और रचनाकार दोनों के लिए सम्मान है, आपकी टिप्पणी रचना की आत्मा तक पहुँच कर आयी है, बहुत बहुत आभार आदरणीय.
आदरणीय जीतेन्द्र जी, रचना पर आपकी उपस्थिति और सराहना मन हर्षित कर गयी, बहुत बहुत आभार.
आदरणीया राजेश कुमारी जी, आपकी टिप्पणी इस अतुकांत कविता को विस्तार दे गयी, बहुत बहुत आभार.
आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी, प्रथम टिप्पणी प्रदान कर उत्साहवर्धन करने हेतु हार्दिक आभार.
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