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संसार की समस्त सम्भावनाओं का क्षेत्र......हरि प्रकाश दुबे

क्यों

घबराते हो

परिवर्तन से ?

परिवर्तन तो होगा  

होता रहा है, होगा बार- बार

किसी के लिए अच्छा भी हो सकता है  

किसी के लिए अवांछनीय भी हो सकता है 

पर सृष्टी का नियम है, बदल सकते हो क्या ?

पर एक बात जान लो, परिवर्तन से ही इंसान लड़ता है

आगे बढता है ,परिवर्तन से ही इंसान सड़ जाने से बचता है !!

क्यों

घबराते हो

समस्याओं से ?

समस्यायें तो आयेंगी

आती रही है, आयेंगी बार – बार

जीवन ऐसे ही चलता है ,चलता रहेगा

कदम –कदम पर छलिया, तुमको छलता रहेगा

कितनी ही चालाकी दिखाओ, बच सकते हो क्या ?

पर याद करो ये सब तुम पहले भी झेल चुके हो कई बार

डूबे हो कभी उबरे हो, पर हर बार नए अंदाज़ के साथ उभरे हो !!   

क्यों

घबराते हो

रिक्तताओं से ?

रिक्ततायें तो आयेंगी

आती रही है,  आयेंगी बार – बार

समय- समय पर, तुम शून्य हो जाओगे

समझना चाहोगे, पर कुछ भी समझ नहीं पाओगे

निर्वात में फँसाये जाओगे, निकल  सकते हो क्या ?

पर यही निर्वात, संसार की समस्त सम्भावनाओं का क्षेत्र है

इसी अवस्था को अपना वरदान बना, अपने जीवन को महान बना !!   

 

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित"

 

 

Views: 744

Comment

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Comment by Hari Prakash Dubey on March 1, 2015 at 9:12am

प्रिय कृष्ण मिश्र जी, आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया ,  आपने रचना के मर्म को समझा इस सब  के लिए बहुत बहुत धन्यवाद  !

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on February 28, 2015 at 11:07am

जीवन ऐसे ही चलता है ,चलता रहेगा

कदम –कदम पर छलिया, तुमको छलता रहेगा..

परिवर्तन से ही इंसान सड़ जाने से बचता है....

क्या बात है सर आपने तो जीवन का सार ही रच डाला...उम्दा..लाजवाब रचना....दिली बधाई..इस रचना को आपने जो एक तरह से सीढ़ी का स्वरूप दिया है..एक एक सीढ़ी जो चढ़ जायेगा..वो इसी जीवन में तर जायेगा!!

Comment by Hari Prakash Dubey on February 26, 2015 at 9:42pm

आदरणीय डॉक्टर गोपाल नारायण सर , बहुत बहुत आभार आपका ! पहले में रबर और केचुआ छंद को मजाक समझ रहा था ,फिर खोजा तो पाया ( केंचुआ छंद वह छंद जिसके चरणों की मात्राएँ बराबर या सम न हों। रबर छंद (परिहास और व्यंग्य). रचना से ज्यादा आपकी  बातों से आनंद आ गया ! कृपापात्र आपका ,  सादर !

Comment by Hari Prakash Dubey on February 26, 2015 at 9:34pm

आदरणीय 'विरेन्दर वीर मेहता' जी आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका धन्यवाद !

Comment by Pari M Shlok on February 25, 2015 at 2:36pm
आ० हरि प्रकाश जी ...बहुत सुन्दर प्रस्तुति बहुत सुंदरता से दर्शाया आपने वास्तविकता को ...जिसे हम बार बार भागते हैं उसे स्वीकार कर लेना चाहिए बेहतर रहता है ... बधाई
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 25, 2015 at 12:32pm

आ०  हरि प्रकाश जी

रबर और केचुआ छंद की भाँति  रची इस रचना का कथ्य दार्शनिक है i सादर i

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on February 25, 2015 at 12:24pm

आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी जीवन की  समसयाओ को आशाओं का नया सूरज दिखाती बहुत सुन्दर कविता....

मेरी और से बधाई स्वीकार करे....सादर !

Comment by Hari Prakash Dubey on February 25, 2015 at 11:15am

आदरणीय जीतेन्द्र सर , आपकी सुन्दर सकारात्मक प्रतिक्रिया ने सच में मनोबल बढ़ा दिया है ,बहुत आभार आपका ! सादर 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 25, 2015 at 11:05am

समस्याएं हर इंसान के जीवन में आती है जाती है और फिर आयेंगी. अगर हम उनसे भागते है तो भागते ही रहेंगे और उनमे भाग लेंगें तो अनुभव से भरा जीवन मिलता है. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति आदरणीय हरिप्रकाश जी. आपने रचना को जो आकार दिया,उस पर आपकी मेहनत तारीफ़ के काबिल है. बहुत -बहुत बधाई

Comment by Hari Prakash Dubey on February 25, 2015 at 11:00am

आदरणीय महर्षि त्रिपाठी जी , बहुत बहुत धन्यवाद आपका !

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