फिर हुआ सागर-मंथन
नए कल्प में
इस बार रत्न निकले – तेरह
देवता व्यग्र ! विष्णु हैरान !
कहाँ गया अमृत-घट ?
समुद्र ने कहा –
अब वह जल कहाँ
जिसमे होता था अमृत
जिसे मेरी गोद में
डालती थी गंगा
जिससे भरता था घट
अब तो शिव ने भी
दो टूक कह दिया है
नहीं करेंगे वे शिरोधार्य
गंगा को
अलबत्ता पियेंगे उसके उदक को
और धारण करेंगे
उसे निज कंठ में
हलाहल की भांति ---उफ़ --!
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
आ० विजय सर !
आपका कथन सही है i अब अमृत मिल भी जाये तो असुर ही उसका पान करेंगे i आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया का आभारी हूँ i सादर i
आ० हरि प्रकाश जी
आपका स्नेह सदैव मिलता है i आपकी तीप से सतत लेखन की प्रेरणा मिलती है i सादर i
आ 0 कृष्णा मिश्र 'जान '
आपकी प्रतिक्रिया से ही आपकी प्रतिभा का परिचय मिल रहा है i आपका आभार i सस्नेह i
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर बहुत सुन्दर
अब तो शिव ने भी
दो टूक कह दिया है
नहीं करेंगे वे शिरोधार्य
गंगा को
अलबत्ता पियेंगे उसके उदक को
और धारण करेंगे
उसे निज कंठ में
हलाहल की भांति ---उफ़ --!.........इस रचना और अद्भुत कल्पना पर बधाई आपको ! सादर
वाह! आदरणीय...!क्या आपकी कल्पना का समुद्र है...जिसमे से यह 'सागर मंथन' रुपी अमृत बहार आया है....बिल्कुल सही वर्णन किया है,,आपने आज की गंगा की दयनीय स्थिति का..मै हैरान हूँ आपके अंदर का इतना युवा सोच का रचनाकार देखकर..जो प्रदूषण के मुद्दे को इस तरह उत्तम भाव से उठा रहा है..नए लेखकों को आपसे सीख़ लेनी चाहिए कि समाज और सामाजिक सरोकारों से कैसे जुड़े...इश्क़-मुहबब्त रोजी-रोटी का दर्द तो कोई भी कह लेता है..पूरे मानवसमाज से जुड़ने वाले कम ही होते है..आपकी उर्जा को प्रणाम..बार बार वंदन आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी!!
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