एक स्त्री हो तुम
पत्नि नाम है तुम्हारा
लेकिन कभी कभी
खुद से अधिक
मेरी चिन्ता में डूब जाती हो
तुम्हारा इतना चिन्तित होना
मेरे अन्तर्मन में भ्रम पैदा करता है
कि तुम मेरी अर्धांगिनी होकर
माँ जैसा व्यवहार करती हो
कैसा बिचित्र संयोजन हो तुम
ईश्वर का
जीवन के उस समय में
जब कोई नहीं था सहारे के लिये
दूर दूर तक
तब एक भाई की तरह
मेरे साथ खडे होकर
भाई बन गयी थीं तुम
उस दिन मुझे आश्चर्य हुआ था
कि स्त्री होकर भी तुमने
एक पुरुष की तरह साथ निभाया था मेरा
अलग अलग रूपों में पाया है
तुमको हरबार मैंने
पता नहीं कौन हो तुम
मैं पुरुष होकर सिर्फ और सिर्फ पुरुष ही रहा
पर तुमने कई बार बदला है अपने रूप को
हे स्त्री ! तुम्हें पाकर पुरुष धन्य हो गया
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
maharshi tripathi जी शुक्रिया
डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी शुक्रिया
krishna mishra 'jaan'gorakhpuri जी आभार
स्त्रिओं की असली पहचान बताती आपकी सुन्दर व अनमोल रचना पर आपको हार्दिक बधाई आ.कटारा जी |
वाह कटारा जी
पत्नी के लिय शास्त्रों में कहा गया है कि भोजन कराते समय वह मातृ रूप होती है i मंत्रणा के समय भाई-बहन जैसी और सेज पर वैश्या जैसी होती है i आपके विचार प्रशंसनीय हैं i साद्फर i
वाह कटारा जी
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