अँधेरा डरावना क्यों होता है , अब उसे पता चल गया था | दिन के उजाले में शरीफ दिखने वाला इंसान , अँधेरे में एक घिनौने शख़्श में तब्दील हो जाता था | कई महीने हो गए थे बर्दाश्त करते हुए | पति से बताने की कोशिश भी की थी लेकिन वो तो अपने बड़े भाई के खिलाफ सुनने को भी तैयार नहीं था | कई बार उसने सोचा कि सासू से बता दे लेकिन उसे पता था कि उसकी बात कोई नहीं सुनेगा |
चार साल पहले आई थी वो शादी करके इस घर में | जेठानी बहुत सीधी और समझदार थी पर घर में सिर्फ जेठ का ही हुक्म चलता था | उनके हर निर्णय में पति भी बस हाँ में हाँ मिलाता था ,बैठना तो उनकी दुकान में ही था | फिर साल भर पहले एक बीमारी में जिठानी चल बसी और ६ महीने बीतते बीतते ही घर का माहौल बदल गया |
फिर अँधेरा छाने लगा था , होलिका जलाने की तैयारी हो रही थी | ढोल बजने लगा और बाहर से फगुआ गाने की आवाज़ आने लगी | पति कुछ सामान लाने दुकान गया हुआ था | इतने में पीछे से एक हाँथ उसकी पीठ पर रेंगने लगा | वो जल्दी से किचन की तरफ भागी , पीछे पीछे वो हाँथ भी आ गया | उसने तुरंत एक निर्णय लिया और किचन का दरवाजा झटके से बंद कर दिया | जब तक जेठ कुछ समझे , केरोसिन का गैलन खाली हो गया | जेठ लपटों में बुरी तरह घिर गया लेकिन आग से वो भी नहीं बच पायी |
बेहोशी अब उसे अपने आगोश में लेने लगी , फगुए का स्वर जोर पकड़ चुका था और जेठ की चीखें उसमे दब के रह गयी | इस सबसे अलग बाहर एक बार फिर होलिका दहन की तैयारी पूरी हो चुकी थी |
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय शुभ्रांशु पाण्डेय जी |
आदरणीय विनय जी सुन्दर कथा.
सादर.
बहुत बहुत आभार आदरणीय कृष्ण मिश्रा जी ..
बहुत बहुत आभार आदरणीय महर्षि त्रिपाठी जी ..
क्या बात है! असली होलिका दहन तो आपने कर दिया! बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना पर आ० भाई विनय जी
अच्छी लघुकथा पर बधाई आ.विनयकुमार जी |
बहुत बहुत आभार आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया जी..
बहुत बहुत आभार आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी ..
आदरणीय विनय जी, जीवन का एक और कड़वा पक्ष दर्शाती मार्मिक कथा , बधाई आपको इस प्रस्तुति पर !
भावपूर्ण व् मार्मिक लघुकथा, आदरणीय विनय जी. बहुत बढ़िया चित्रं उकेरा आपने रचना के माध्यम से. बधाई स्वीकारें
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