अंतिम शब्द
द्वार खुला था
तुम दहलीज़ पर अहम् के जूते उतार
सुस्मित शरद चाँदनी-सी कभी
कभी भोर की प्रथम किरण बनी
बाँहें फैलाए घर के भीतर चली आई
तुमने जिसे मंदिर बनाया
वह आँसू-डूबा उल्लास-भरा
मेरा मन था।
मन पावन था पावन रहा
कब कहा मैंने भगवान हूँ मैं
तुमने मुझको भगवान बनाया
और अब असीम बेरहमी से सहसा
जूतों समेत मेरे सीने पर चल कर
तुम्हारा प्रहार पर प्रहार ... उफ़ !
भीतर नभ में कितने तारे फूटे
कानों में पिस्तौल बन्दूक की ध्वनियाँ
कंपित मन लिए दुख की कथाएँ
बेमाप अकेले में कराह उठा
"हे रा...म"
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-- विजय निकोर
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
//बहुत सुंदर रचना, सर. दिल को छू जाती है//
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय जितेन्द्र भाई।
//बहुत खूब , प्रत्येक पंक्ति से दर्द झलकता है//
ऐसी सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया अन्नपूर्णा जी।
रचना की सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीया मीना जी।
//एक सामयिक घटना को बहुत खूबसूरत शब्द मिले हैं , बहुत मार्मिक रचना हुई है //
आपकी सराहना सदैव मनोबल बढ़ाती है, आदरणीय भाई गिरिराज जी। हार्दिक धन्यवाद।
//मार्मिकता लिए जिस प्रकार आप ने शब्दों को अभिव्यक्त किया है वह निस्संदेह दिल को छूती है..//
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय विरेन्दर जी।
//बहुत ही सशक्त ,समसामयिक रचना//
आदरणीय हरि प्रकाश जी, रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।
आदरणीय भाई शरदिन्दु जी, पाठकों ने इस रचना को ठीक ही समझा है। हालांकि शब्द "हे राम" पूज्य गाँधी जी की पुण्य स्मृति को पटल पर ले आते हैं, यहाँ इस रचना में मैं गाँधी जी को संबोधित नहीं कर रहा था। आपका हार्दिक आभार।
//बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति है .... दिल को छूती प्रस्तुति ...//
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सुशील जी।
//कविता की भावनाओं में खो सा जा रहा हूँ |इस वेदना को अनुभव किया है |इसलिए इस रचना के साथ आत्मसात हो गया //
रचना को आत्मसात करने के लिए, अनुभव करने के लिए, आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सोमेश जी।
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