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अनबूझा मौसम

आसमानी बिजली

मूसलाधार बारिश

फिर सूरज की चमकती किरणें

डाल पर फूल का नव रूप धर आना

मौसम के बाद एक और मौसम ...

यह सब सिलसिला है न ?

पर किसी एक के चले जाने के बाद

यहाँ कहीं नए मौसम नहीं आए

एक मौसम लटक रहा है

उदासी का

डाल पर रुकी, लटक रही टूटी टहनी-सा

भय और शंका और आतंक का मौसम

भिगोए रहता है पलकों को

आधी रात

क्या नाम दूँ

टूटे विश्वास का धुँधलापन ओढ़े

कुहरीले अनबूझे इस मौसम को आज?

----------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 738

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Comment by ram shiromani pathak on December 24, 2014 at 12:43am
वाह क्या कहूँ आदरणीय एक और ज़ोरदार प्रस्तुति।।हार्दिक बधाई आपको।।सादर
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on December 23, 2014 at 8:30pm

एक मौसम लटक रहा है

उदासी का

डाल पर रुकी, लटक रही टूटी टहनी-सा

भय और शंका और आतंक का मौसम

भिगोए रहता है पलकों को

आधी रात

......सजल नयन से पढता हूँ आपकी इन पंक्तियों को आदरणीय विजय निकोर साहब!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 22, 2014 at 2:51pm

आदरणीय बड़े भाई विजय जी , सच है किसी प्रिय के चले जाने के बाद ऐसा ही लगता है मानो जाने वाला सब कुछ के गया हो अपने साथ , मौसम भी । जाने का दर्द साकार हो उठा है ! बधाइयाँ आदरणीय ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 22, 2014 at 2:09pm

आ०निकोर जी

किसी एक के चले जाने के बाद ----- आपकी रचना को नियमित पढनेवाले इस 'किसी एक' को बखूबी जानते है i अपरिचित है मगर पहचानते  है  i कविता में इस वांछित के आने के बाद फिर कुछ नहीं बचता सिवाय उस अव्यक्त पीड़ा के जिसे आप बार बार अनेक तरह से रूपायित करते रहते है  i आमीन i सादर  i

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on December 21, 2014 at 6:58pm

क्या नाम दूँ

टूटे विश्वास का धुँधलापन ओढ़े

कुहरीले अनबूझे इस मौसम को आज?..............बहुत सुंदर,सर. अंतर्द्वंद को बहुत उम्दा भाव दिए आपने रचना में. हार्दिक बधाई स्वीकारें


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 21, 2014 at 2:54pm

आदरणीय विजय निकोर साहब, आपकी प्रस्तुतियों में एकाकी पीड़ा, मनोमालिन्य को नकारती सुनहरी यादें, उन यादों की बारम्बरता इस शिद्दत से स्थान पाती हैं कि दर्द आकार ले सीधा सामने खड़ा दिखता है. यह साकार दर्द आपके लेखन का संबल है. आपका भावुक मन वर्णनप्रिय है, आदरणीय, जिसके प्रति मैं एक पाठक के तौर पर सदा ही निसार रहा हूँ.
शीत के नैराश्य भाव गहनता से शाब्दिक हुए हैं, इसमें दो राय नहीं.
हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें आदरणीय.

एक बात:
आदरणीय, ’कोई’ के बाद संज्ञा और तदनुरूप क्रिया एकवचन की हो ऐसा व्याकरण सम्मत है. अतः, यहाँ कोई नए मौसम नहीं आए को या तो यहाँ कोई नया मौसम नहीं आया किया जाय या यहाँ कभी नए मौसम नहीं आए किया जाय.

सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 17, 2014 at 8:46am

आ0  निकोर जी

पर किसी एक के चले जाने के बाद

यहाँ कोई नए मौसम नहीं आए----- सच है कोई अभाव ऐसा होता है जो सारी खुशियों और जीवन को बे मायने कर देता है i आपकी कवितायें इस दर्द को ख़ूबसूरती से बयान करती हैं  i सादर i

Comment by Priyanka singh on December 17, 2014 at 12:26am

क्या नाम दूँ

टूटे विश्वास का धुँधलापन ओढ़े

कुहरीले अनबूझे इस मौसम को आज?......आपको लेखनी ....दर्द को बयाँ करती आपकी रचना ..कुछ दर्द जो किसी भी खुबसूरत मौसम के आने से नहीं बदलता ...कुछ जो ठहरा रहता है ...आज और कल के चाकों के बीच ..उसका बेनाम सा रिश्ता ...क्या कहें ...बहुत खूब सर ...हर बार की तरह ...नमन आपकी लेखनी को ...नमन ...

Comment by somesh kumar on December 16, 2014 at 10:45pm

क्या नाम दूँ

टूटे विश्वास का धुँधलापन ओढ़े

कुहरीले अनबूझे इस मौसम को आज?

बेहद सुंदर एवं भावनात्मक कविता ,किसी की कमी जो कोई और नहीं पूरी कर सकता 

तेरे दायरे से निकल नहीं पाया/ मेरा मौसम आज तक बदल नहीं पाया 

जल गए कितने सितारे रात को /मेरा सूरज लेकिन बदल नहीं पाया 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 16, 2014 at 10:43pm

आदरणीय विजय निकोर सर सुन्दर और बेहतरीन रचना है बहुत बहुत बधाई आपको

कृपया ध्यान दे...

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