अनबूझा मौसम
आसमानी बिजली
मूसलाधार बारिश
फिर सूरज की चमकती किरणें
डाल पर फूल का नव रूप धर आना
मौसम के बाद एक और मौसम ...
यह सब सिलसिला है न ?
पर किसी एक के चले जाने के बाद
यहाँ कहीं नए मौसम नहीं आए
एक मौसम लटक रहा है
उदासी का
डाल पर रुकी, लटक रही टूटी टहनी-सा
भय और शंका और आतंक का मौसम
भिगोए रहता है पलकों को
आधी रात
क्या नाम दूँ
टूटे विश्वास का धुँधलापन ओढ़े
कुहरीले अनबूझे इस मौसम को आज?
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
एक मौसम लटक रहा है
उदासी का
डाल पर रुकी, लटक रही टूटी टहनी-सा
भय और शंका और आतंक का मौसम
भिगोए रहता है पलकों को
आधी रात
......सजल नयन से पढता हूँ आपकी इन पंक्तियों को आदरणीय विजय निकोर साहब!
आदरणीय बड़े भाई विजय जी , सच है किसी प्रिय के चले जाने के बाद ऐसा ही लगता है मानो जाने वाला सब कुछ के गया हो अपने साथ , मौसम भी । जाने का दर्द साकार हो उठा है ! बधाइयाँ आदरणीय ।
आ०निकोर जी
किसी एक के चले जाने के बाद ----- आपकी रचना को नियमित पढनेवाले इस 'किसी एक' को बखूबी जानते है i अपरिचित है मगर पहचानते है i कविता में इस वांछित के आने के बाद फिर कुछ नहीं बचता सिवाय उस अव्यक्त पीड़ा के जिसे आप बार बार अनेक तरह से रूपायित करते रहते है i आमीन i सादर i
क्या नाम दूँ
टूटे विश्वास का धुँधलापन ओढ़े
कुहरीले अनबूझे इस मौसम को आज?..............बहुत सुंदर,सर. अंतर्द्वंद को बहुत उम्दा भाव दिए आपने रचना में. हार्दिक बधाई स्वीकारें
आदरणीय विजय निकोर साहब, आपकी प्रस्तुतियों में एकाकी पीड़ा, मनोमालिन्य को नकारती सुनहरी यादें, उन यादों की बारम्बरता इस शिद्दत से स्थान पाती हैं कि दर्द आकार ले सीधा सामने खड़ा दिखता है. यह साकार दर्द आपके लेखन का संबल है. आपका भावुक मन वर्णनप्रिय है, आदरणीय, जिसके प्रति मैं एक पाठक के तौर पर सदा ही निसार रहा हूँ.
शीत के नैराश्य भाव गहनता से शाब्दिक हुए हैं, इसमें दो राय नहीं.
हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें आदरणीय.
एक बात:
आदरणीय, ’कोई’ के बाद संज्ञा और तदनुरूप क्रिया एकवचन की हो ऐसा व्याकरण सम्मत है. अतः, यहाँ कोई नए मौसम नहीं आए को या तो यहाँ कोई नया मौसम नहीं आया किया जाय या यहाँ कभी नए मौसम नहीं आए किया जाय.
सादर
आ0 निकोर जी
पर किसी एक के चले जाने के बाद
यहाँ कोई नए मौसम नहीं आए----- सच है कोई अभाव ऐसा होता है जो सारी खुशियों और जीवन को बे मायने कर देता है i आपकी कवितायें इस दर्द को ख़ूबसूरती से बयान करती हैं i सादर i
क्या नाम दूँ
टूटे विश्वास का धुँधलापन ओढ़े
कुहरीले अनबूझे इस मौसम को आज?......आपको लेखनी ....दर्द को बयाँ करती आपकी रचना ..कुछ दर्द जो किसी भी खुबसूरत मौसम के आने से नहीं बदलता ...कुछ जो ठहरा रहता है ...आज और कल के चाकों के बीच ..उसका बेनाम सा रिश्ता ...क्या कहें ...बहुत खूब सर ...हर बार की तरह ...नमन आपकी लेखनी को ...नमन ...
क्या नाम दूँ
टूटे विश्वास का धुँधलापन ओढ़े
कुहरीले अनबूझे इस मौसम को आज?
बेहद सुंदर एवं भावनात्मक कविता ,किसी की कमी जो कोई और नहीं पूरी कर सकता
तेरे दायरे से निकल नहीं पाया/ मेरा मौसम आज तक बदल नहीं पाया
जल गए कितने सितारे रात को /मेरा सूरज लेकिन बदल नहीं पाया
आदरणीय विजय निकोर सर सुन्दर और बेहतरीन रचना है बहुत बहुत बधाई आपको
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