1222---1222---1222---1222 |
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सभी खामोश बैठे हैं, सदा पर आज ताले हैं |
हमारी बात के सबने गलत मतलब निकाले हैं |
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उजड़ते शह्र का मंजर न देखें सुर्ख रू साहिब |
गज़ब के आइने इनके, गज़ब के अक्स वाले हैं |
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करें तक्सीम जो मज़हब, मुझे क्या वो बताएँगे |
कहाँ मस्जिद मेरे गिरजे, कहाँ मेरे शिवाले हैं |
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उसे भी आँख का पानी बुझाकर राख कर देगा |
कहो नफरत के शोलों से तुम्हारे हश्र काले हैं |
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वहां साड़ी का पल्लू भी हवा में उड़ रहा होगा |
बयाज़े-दिल जुदाई के तसव्वुर भी निराले हैं |
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मेरी तकदीर का तारा फलक से गिर पड़े शायद |
इसी उम्मीद में पैहम कई पत्थर उछाले हैं |
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बिहाने नींद खुल जाए, सहर की धूप मिल जाए |
इसी हसरत में सोये थे, उठे उम्मीद पाले हैं |
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गुलों को देखकर कितना परेशां बाग़ का आलम |
वही अनजान बैठे हैं, चमन जिनके हवाले हैं |
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यकीं ‘मिथिलेश’ जो खुद पे हमें डर तीरगी से क्या |
जले हम दीप के जैसे, हमारे ही उजाले हैं |
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सुर्खरू-लाल मुख, बयाज़े-दिल- दिल की डायरी, पैहम-लगातार, तीरगी-अँधेरा |
Comment
आ० वामनकर जी
बहुत सुन्दर .
उजड़ते शहर का मंजर न देखें सुर्ख रू साहिब |
गज़ब के आइने इनके, गज़ब के अक्स वाले है |
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मुझे दादी बताती थी फलक पे है खुदा का घर |
जमीं पर क्यों भला मस्जिद कहीं गिरजा शिवाले है |
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उसे भी आँख का पानी बुझाकर चाँद कर देगा |
कहो सूरज न इतराए तपन के हश्र काले है |
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वहां साड़ी का पल्लू भी हवा में उड़ रहा होगा |
बयाज़े-दिल जुदाई के तसव्वुर भी निराले है------सादर . |
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