मुतकारिब मुसद्दस सालिम
१२२ १२२ १२२
अधूरा मिलन है हमारा
नहीं प्यार ऐसा गवारा I
मिले गर न हम इस जनम में
जनम साथ लेंगे दुबारा I
भटकता अकेला गगन में
विपथ एक टूटा सितारा I
समय की बड़ी बात होती
कहाँ आज जश्ने बहारा I
तपस्या सदृश मूक जीवन
सभी ने जतन से संवारा I
अभी से थका जीव-मांझी
बहुत दूर पर है किनारा I
कहाँ रोटियां आज सेंके
सताया हुआ सर्वहारा I
छिपा है क्षितिज पार कोई
यही मान मैंने निहारा I
कहो हाल ‘गोपाल’ कैसा ?
धरा से किसी ने पुकारा !
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आ० हरी प्रकाश दुबे
शत शत आभार. सादर
प्रिय कृष्ण
आभार,स्नेह.
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर, बहुत ही खूबसूरत रचना है , आनंद आ रहा है आपके इस अंदाज़े बयाँ पर , हार्दिक बधाई ! सादर
छिपा है क्षितिज पार कोई
यही मान मैंने निहारा I
कहो हाल ‘गोपाल’ कैसा ?
धरा से किसी ने पुकारा !......वाह !
सुन्दर रचना पर बधाई आदरणीय!
डा 0 आशुतोष जी
सादर आभार .
आ० श्री सुनील जी
बहुत बहुत आभार .
आ० वामनकर जी
आपके मार्गदर्शन का आभारी हूँ . अनुरोध है की यह प्रक्रिया बनी रहे . सादर .
आ० नीलेश जी
आपका सादर आभार .मैनेसंशोधन समझ लिया है शीघ्र ही एडिट करता हूँ .
समीर कबीर जी
आपका अनुगृहीत हूँ . सादर .
आ० श्याम नारायण वर्मा जी
बहुत बहुत शुक्रिया .
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