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आदरणीय वीनस भाई जी , आपका बहुत बहुत आभार !
अब तक के चर्चा से हम नये सीखने वालों के मन मे अकारण उठने वाले प्रश्न को आपने तमाम व्यस्तताओं के बीच समय देकर हल दिया है । ऐसे ही कुछ समय हम सीखने वालों के लिये निकालते रहियेगा ॥ आपका बहुत आभार ॥
जनाब-ए-आली मुह्तरम समर कबीर साहिब
आपकी ग़ज़ल पढने का शरफ़ हासिल हुआ ...
लबो-लहजा ने ख़ूब मुतासिर किया और शेर-दर-शेर ग़ज़ल दिल में उतरती चली गयी ...
सबसे पहले मुरस्सा ग़ज़ल के लिए दाद क़ुबूल फरमाएं ...
आगे ये कहना है कि आपने बहर का जो अर्कान पेश किया है उसने मुझे अपने पास देर तक रोके रखा मगर मैंने पहले ग़ज़ल का लुत्फ़ लिया और उसके बाद कमेन्ट में खोजा कि किसी ने इस मुताल्लिक चर्चा किया है या नहीं .. देख कर सुकून मिला कि यह अदबी महफ़िल अपने आपस में सीखने-सिखाने के मक्सद में भी कामयाब ठहरी है मगर इस हवाले से आपके रुख़ को देख कर हैरानी हुई और सख्त अफ़सोस हुआ ...
आगे माज़रत के साथ ...
अदबी बहसों में क्या कोई केवल इसलिए सही ठहराया जा सकता है कि वो ५० या ६० साल से अदब की खिदमत कर रहा है या किसी बहुत बड़े उस्ताद का शागिर्द है या १५ - २० असातिज़ा से सीख चुका है ???
अदबी बहसों में क्या ख़ुद सही होने पर सामने वाले को इस तरह नीचा दिखाने की कोशिश की जाती है कि दूसरे शख्स को अह्सासे कमतरी का शिकार बना दिया जाए ...
"ग़ज़ल कहना नहीं है खेल कोई
सुना तुमने,"समर" क्या बोलता है"
"मैं नूर बनके फ़ज़ाओं में फैल जाऊँगा
तुम आफ़ताब में कीड़े निकालते रहना" |
इस तरह के शेर कोट करना किस तरह की अदबी जेहनियत का नमूना है ????
आपसे एक बार भी ये सोचना गवारा नहीं हुआ कि हो सकता है सामने से जो कहा जा रहा है वो सही हो ...
आप अपने कमेन्ट में कहते हैं
// इस बह्र के अरकान फ़ऊलुन फ़ाईलातुन फ़ाईलातुन बिल्कुल सही है //
क्या आप बताएँगे कि ये अर्कान अरूज़ के हवाले से किस तरह जाइज़ है जबकि बहर रमल में ऐसा कोई ज़िहाफ ही नहीं है जिससे आप रुक्ने-सदर-ओ-इब्तिदा को फाइलातुन से फ़ऊलुन कर सकें ...
क्या आप किसी भी ज़िहाफ को किसी भी जगह लगा लेंगे और वो भी केवल इसलिए कि आप ५० साल से अदब की खिदमत कर रहे हैं और क्या आप किसी के ऐसे एतराज़ को इस लिए खारिज़ कर देंगे कि वो नया लिखने पढने वाला है ???
इतना तो आपको पता ही होगा अदबी बहसों में उम्र का तकाज़े नहीं चलते और अगर बहस अरूज़ के हवाले से हो तब तो बिलकुल भी नहीं ...
अगर आप अर्कान को सही ठहराते हैं तो वो ज़िहाफ पेश करें जिसके हवाले से ये अर्कान सही है
ऐसा कोई ज़िहाफ जेहन में न हो तो एक बार असतिज़ा से भी मशविरा कर लें ...
"शक्ति" के लिए भी मुझे बताएं कि किस उसूल के तहत आप इसे २१ की जगह २२ करते हैं .... हर्फ़ को गिरना तो सुना था उठाना पहली बार देखने को मिल रहा है और उस पर बड़ी बात ये कि "पत्थर" के हमवज्न बांधने के बावाजूब आप इसे शक्ती नहीं लिखते शक्ति लिखते हैं ...
अब क्या ग़ज़ल में किसी हर्फ़ के वज्न को गलेबाज़ों की कारगुजारियों के हवाले से सही ठहराया जाएगा ....
मेरे ख्याल से अभी इतने बुरे दिन नहीं आये हैं
"शक्ति" को "पत्थर" के हमवज्न बांधना सही ठहराते हैं तो असातिज़ा के अशआर मिसाल के तौर पर पेश करने की जहमत भी उठाईये, असतिज़ा ने "पत्थर" के हमवज्न बांधा हो और उसके बाद भी कोई न माने तो ख़ाक डालिए उसके एतराज़ पर मगर अदबी बहसों के फैसले मिसालों से तय होते हैं उम्र के तकाजों से नहीं ...
आदाब
आदरणीय समर कबीर साहब , लाजवाब रचना है , हर एक शे'र गज़ब का है ,
मैं सच्चाई की बातें कर रहा हूँ
समझते हैं दिवाना बोलता है....सुन्दर
बंधे हैं एकता की डोर से हम
गवाही में तिरंगा बोलता है......बहुत गहरी बात , वाह , हार्दिक बधाई आपको इस रचना पर ! सादर
प्रथम तो मैं हैरान हूँ.....क्युकि मै इसी काफिया और रद्दीफ़ के साथ पिछले चार-पांच दिन से,गज़ल लिख रहा हूँ!हालांकि बह्र अलग है!क्या लाजव़ाब संयोग है!!जल्द ही मंच पर रखूँगा..
आदरणीय समर सरजी!मतले को पढ़ते ही दिमाग घूम गया और वाह!वाह!वाह! से दिल गूंज उठा! लाजवाब मतला हुआ है,
बाकी के सारे ही शेर भी अपने हुस्न में है!और आपका अंदाज लिए ये शेर तो बेहद उम्दा---
तिरी शक्ति है अपरम पार मौला
तिरे आगे तो गूंगा बोलता है
हिंदी-उर्दू के मेल की मिसाल लिए! लाजव़ाब!
मक्ते की तो बात ही क्या! सच का शबाब लिए!
पाठशाला ग़जल!
आदरणीय समर कबीर जी आपकी रचनाओ से बहुत कुछ सिखने को मिलता है। सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई सवीकार करे ।
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