मुतकारिब मुसम्मन सालिम
122 122 122 122
न जाने किये कौन से रतजगे हैं
मुझे आप से तुम वो कहने लगे है
पिया है अमिय रूप वह जो तुम्हारा
पड़ा हूँ , सभी रोम रस में पगे हैं
हुआ पाटली नैन का जोर जादू
खड़े इंद्र गन्धर्व सब तो ठगे हैं
जिन्हें काम का देवता लोग कहते
तुम्हे देखकर काम उनके जगे हैं
हुआ है अभी यह नया नेह बंधन
कि लगते मुझे वे सगों से सगे हैं
पुछल्ले –
जलज यह नही, हैं विषैले विलोचन
यही सोचकर प्रिय भ्रमर सब भगे हैं
चली आयी ख्वाबों में बारात उनकी
सुनो ध्यान से कितने गोले दगे हैं
Comment
आ० सौरभ जी
इतना सीखने को मिल रहा है . इतने सिखाने वाले है . आपका स्नेह है . यह सचमुच सौभाग्य है . सादर .
प्रिय महर्षि
मैं सीख रहा हूँ . मेरे साथ आप भी सीखो . स्नेह .
आ० कबीर सर मेरे हिसाब से तो मिश्रा बहर में है देखिये-
यही सो च कर प्रिय भ्र मर सब भ गे हैं
1 2 2 1 2 2 1 2 2 1 2 2
पुनः मार्ग दर्शन चाहूँगा i सादर .
नजील भाई
मैं तो अभी सीख रहा हूँ . स्नेह .
आ० विजय सर !
धन्य हुआ . सादर .
आ० अनुज
आपने एक अच्छे सलाह दी बहर मिलाने का प्रयास नहीं दिखना चाहिए i बहुत बढ़िया i आपके सभीसुझाव उत्तम हैं . सादर .
आ० श्याम नारायण वर्मा जी \
आपका बहुत बहुत आभार
आ० मिथिलेश जी
आपने मेरी प्रथम रचना की तक्तीअ की है यह मुझे आजीवन याद रहेगा. आपसे मार्ग दर्शन मिलता रहे . बस . सादर .
आदरणीय गोपाल नारायनजी, बढिया अभ्यास चल रहा है. यह क्रम निरंतर बना रहे.
मदमाती भावनाओं से लबरेज़ इस ग़ज़ल पर खूब चर्चा हो रही है. मिसरों के गठन पर बेहतर सुझाव आ रहे हैं. यह एक शुभ संकेत है, आदरणीय. आप भाग्यशाली हैं. :-))
सादर
आ. डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर जी ,,,आप हिंदी गजल को लेकर कितने गंभीर हैं ,,,आपकी रचना में सा...
हुआ है अभी यह नया नेह बंधन
कि लगते मुझे वे सगों से सगे हैं
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,बहुत सुन्दर ,,बधाई आपको |
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