“मास्टर साहब तनिक मेरे छोटका बेटा को समझाइये न, गलत संगत में पड़ वह अपनी जिन्दगी और खानदान का नाम... दोनों बर्बाद कर रहा है.”
मास्टर साहब को चुप देख प्रधान जी पुनः बोल पड़े.
“आप तो उसे ऊँगली पकड़ कर चलना सिखाये हैं आप की बात वो जरुर मानेगा.”
“प्रधान जी आपके कहने से पहले ही मैंने सोचा था कि उसे समझाऊं किन्तु ...”
किन्तु क्या मास्टर साहब ?
"प्रधान जी क्षमा चाहूँगा किन्तु कीचड़ से सनी उसकी जूती तथा अपना उजला लिबास देख उसे समझाने का साहस मैं नहीं जुटा सका."
(मौलिक व अप्रकाशित)
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Comment
आदरणीय बागी जी कथा लघु है मगर बहुत बड़ी बात की तरफ इशारा करती है आपकी यह रचना ..मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें
लघुकथा पर उपस्थिति एवं सराहना हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीया सविता मिश्रा जी.
आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी, लघुकथा पर खुबसूरत काव्य पक्तियों के साथ उपस्थित होना सुखकर लगा, बहुत बहुत आभार.
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी, लघुकथा पर आपका आशीर्वाद मिला, बहुत बहुत आभार.
सराहना हेतु हृदय से आभार आदरणीय जितेन्द्र पस्तारिया जी.
सुन्दर लघुकथा! बधाई आदरणीय!
प्रधानजी को अपने बेटे के भविष्य़ को सुधारने की चिंता तब हुई जब वह पूरी तरह से लहेंडा हो चुका था. ऐसे ’बूढ़े तोते’ क्या पोस मानते हैं ? मास्टरजी के उत्तर के माध्यम से आपने संयत बात साझा की है.
वैसे इस लघुकथा में ’आपकी वाली बात’ तनिक कम है.
हार्दिक शुभकामनाएँ भाई गणॆश बाग़ीजी..
मेरी पहली वाली टिप्पणी लगता है, ’उड़’ गयी !!.. ..
काजल की कोठ्ररी हो या कीचड भरी राह, हम तो ऐसे ही बच निकलेंगे.....सच्चे गुरु की वाह ! परमार्थ से भरपूर लघु कथा. हार्दिक बधाई. सादर
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