सत्य.....
पंच महाभूतों की आस्था
विज्ञान भी मानता- शोध में,
वेद-पुराणों, महाकाव्यों के आधार बिन्दु
जीवन के सेतु-बंध,
उपकृत करते-
क्षित, जल, पावक, गगन व समीर
एक दूसरे के पूरक
महाकाश से घटाकाश तक सर्वत्र व्यापी
तल-वितल, अतल भी
धारण करते पिण्ड स्वरूप.....अखण्ड ब्रह्म,
कण-कण रोमांच से भरपूर
क्षर कर भी सृजन के चंद्र-सूर्य
चक्राकार आवृत्ति के द्विगुण- सघन तम व तेज
विस्तारित करते रहस्य
आकार लेते, आभाष - अनुभव
दृश्य-अदृश्य कदाचित सम्मिश्रण ही
जीवन प्रगतिवान,
बीज रूप, अव्यक्त एवं असीम
आत्मा का आभार,
देह, अ-िस्थत्व का बोध कराती
अहं में प्रकट होती-इन्दियां,
आँख, कान, नाक, मुॅह, और त्वचा
निरन्तर उत्पादन करते
दृश्य, श्रवण, गंध, स्वाद, और स्पर्श
अनुभूतियां संगठित करती
एक संयोजक - मन, संशय का सम्राट
नियु-िक्त करता अन्यान्य रसेन्दियां
घेर लेती दुर्गम दुर्ग
प्रहार करते षट विकार
क्षत-विक्षत होते द्वार, प्राचीर सम्पूर्ण दुर्ग भी
दुर्ग का सेनापति- आत्मा,
नागों का मर्दन कर रास रचता
आनन्दित होता कण-कण
रेत, पल-पल संलग्न है
सृजन में
आत्मा निर्लिप्त......अमरता में संलिप्त
स्थापित करना चाहता---- सत्य !
के.पी.सत्यम/मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ0 जान भाईजी, आपके अभिमत से बिलकुल सहमत हूँ. लेकिन पति के आगे-पीछे कुछ लगाना पडता है...जैसे कि जगतपति, उमापति, लक्ष्मीपति अथवा पतिव्रता, पतिराम आदि. इसीलिये मैंने सेनापति शब्द का उपयोग किया. रण भूमि मे सेनापति के आदेशो का सभी को अक्ष्ररश: पालन करना होता है, सादर
आ० केवल भाई आपके उत्तर पे मै बस इतना कहना चाहूँगा के आपने पति शब्द का बहुत सीमित अर्थ ले लिया,भगवान विष्णु को जगतपति भी कहते है,पति शब्द का अर्थ पति-पत्नी तक तो सीमित नही,पति का मूल अर्थ मालिक या सर्वेसर्वा है!
आ0 भंडारी भाई जी, मेरे अनुभव व विचार आपको संतुष्ट कर सके, मैं धन्य हुआ. आपका बहुत-बहुत हार्दिक आभार. सादर
क्या बात है ! आदरणीय केवल भाई , सर्व प्रथनम आपके शब्दों के चुनाव के लिये हार्दिक बधाइयाँ ॥ शरीर और पिंड मे ब्रम्हाण्ड दोनो की सच्चाई बहुत सुन्दर बयान किया है आपने ।
आ0 जान भाई जी, भाई जी ! आत्मा को हम "पति" नही कह सकते. क्योकि पति तो अपनी पत्नी को ही नही संभाल सकता और आत्मा सम्पूर्ण शरीर रुपी ब्रह्माण्ड अर्थात दुर्ग को संचालित व व्यवस्थित करता है. जिस प्रकार एक सेनापति सम्पूर्ण सेना का कुशल संचालन करता है. आपका बहुत-बहुत हार्दिक आभार. सादर
आ0 वामनकर भाई जी, मेरे अनुभव व विचार आपको संतुष्ट कर सके, मैं धन्य हुआ. आपका हार्दिक आभार. सादर
आ0 जितेंद्र भाई जी, मेरे अनुभव व विचार आपको संतुष्ट कर सके, मैं धन्य हुआ. आपका हार्दिक आभार. सादर
आ0 कबीर भाई जी, मैंने बडी सरल भाषा में ही लिखा है. हाँ, यह अवश्य है कि कुछ शब्द-जैसे....
1--"षट विकार".. अर्थात काम, क्रोध, मोह, लोभ, मद, व मत्सर येह छ: प्रकार के विकार कहे गये हैं.
2--"नागों का मर्दन कर रास रचता" अर्थात.. भगवान विष्णू जी अर्थात आत्मा...ही!
3--"अन्यान्य रसेन्दियां" ग्यारह इंद्रियो मे से भी एक-एक हजार इंद्रिया निकलती हैं. रसेंद्रियो का तात्पर्य है हमारी रक्त- सम्वाहिकाए, जो हमे अर्थात शरीर को विभिन्न रसास्वादनो हेतु निरंतर प्रेरित करती रहती हैं.
इन शब्दो के अतिरिक्त मेरी जानकारी मे ऐसे कोई शब्द नही हैं जिसे आप न समझ सके.
आपका हार्दिक आभार. सादर
आ0 विजय भाई जी, मेरे अनुभव व विचार आपको संतुष्ट कर सके, मैं धन्य हुआ. आपका अन्त:स्थल आभार. सादर
मंत्रमुग्ध कर दिया आ० भाई केवल प्रसाद जी,देवनागरी के जो क्षटा बिखेरी है शब्दों में सीना फूल गया है,अपनी भाषा-लिपि और हिन्दू-हिन्दीभाषी होने पर एक बार फिर से!आपका बहुत बहुत हार्दिक आभार...एक बात कहना चाहूँगा के-- दुर्ग का सेनापति- आत्मा, में आत्मा के लिए सेनापति शब्द छोटा लग रहा है,>>दुर्ग का पति- आत्मा, करना कैसा रहेगा??
एक बार फिर से इस रचना पर हृदयतल से बधाई व् शुभकामनाए!
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