सत्यांजलि
धन्य धन्य हे मात तू, धन्य हुआ यह पूत।
असहायों की मदद कर, यश-धन मिला अकूत।।1
क्षितिज द्वार पर नित्य ही, कुमकुम करे विचार।
स्वर्ण किरण के जाल में, क्यों फॅसता संसार।।2
उपकारी बन कर फलें, ज्यों दिनकर का तेज।
दिन भर तप कर दे रहा, रात्रि सुखद की सेज।।3
धर्म कार्य जन हित रहे, चींटी तक रख ध्यान।
मात्र द्वेष निज दम्भ रख, ज्ञानी भी शैतान।।4
जनहित मन्तर धर्म का, स्वार्थी पगे अधर्म।
सच्चा सेवक त्यागमय, करता है सतकर्म।।5
उपबन्धों में प्यार क्या? जीवन भी नित गर्क।
रहें बन्ध से मुक्त हम, यही सत्य का अर्क।।6
प्रस्तर प्यारा प्रेम का, ज्यों अस्तर लग कोट।
अन्तर्मन के भाव सम, ढके रहें सब चोट।।7
इतिहासों पर हैं अड़े, खोज न पाये पंथ।
जन-जन चलनी हो गये, कण्ट धर्म के ग्रंथ।।8
नवल सूर्य नव सांझ भी, हर नवरात्रि अनूप।
धरती माता से कहें, मनुष गहन तम कूप।।9
भू कम्पन या जल प्रलय, आँधी हो तूफान।
मनुष कभी रखता नहीं, प्रकृति धैर्य का मान।।10
के.पी. सत्यम / मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विजय भाई जी, आपका हार्दिक आभार, सादर
आदरणीय वामंनकर भाई जी, आपका हार्दिक आभार, मैं आपका आशय नहीं समझ सका....! पंक्ति बिलकुल सही है----हाँ----आप "अकूत" के स्थान पर "प्रभूत" भी पढ सकते हैं! सादर
सुन्दर दोहावली हुई है हार्दिक बधाई
इन पंक्तियों पर पुनर्विचार निवेदित है -
असहायों की मदद कर, यश-धन मिला अकूत।।1
आ0 कबीर भाई जी, आपका हार्दिक आभार. सादर
आ0 गोपाल सर जी, सही पकडा आपने, अभी सही करा देता हूँ. आपका हार्दिक आभार. सादर
केवल जी
'इतिहासों पर अड़े हैं' को 'इतिहासों पर हैं अड़े ' कर लीजिये , सादर
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