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....जागते रहो

शहर के उस कोने में बजबजाता
एक बड़ा सा बाजार
जहॉ बिखरे पड़े हैं सामान
असहजता के शोरगुल में
तोल-मोल करते लोग
कुछ सुनाई नहीं देता
बस!  दिखाई देता है,  एक गन्दा तालाब
उसमें कोई पत्थर नहीं फेंकता
उसमे तैरती हैं...मछलियां, बत्तखें और
बेखौफ पेंढुकी भी
वे जानती है, और सब समझतीं भी हैं...
इस संसार में सब कुछ बिकाऊ हैं-
कुछ पैसे लेकर और कुछ पैसे देकर
यहां शरीर से लेकर आस्था तक, .....सब!
तालाब की मिट्टी में सने ...देव मूर्ति ही!
पास ही -िस्थत पक्की लाल कोठी
बाजार का मुख्य आकर्षण
अपनी कलात्मकता के लिए दूर-दूर तक मशहूर,
अनगिनत छोटी-बड़ी खिड़कियां
नित्य प्रात: से ही सज संवर जातीं
चमकीलें पर्दे एडि़यां उठा-उठा कर नीचे झांकते
प्रतिद्वंदियो की आपाधापी और पर्दो की चकाचौंध में
पथिकों की नजरें अनायास ही टकराती
सजीली खिड़कियों से....... पर्दे गिर जाते,
किन्तु, खेल खत्म नहीं होता
प्रारम्भ होते रश्म, मगही पान से
तालाब के हलचल में प्रतिबिम्ब साफ नहीं झलकता
मन-आत्मा, सम्पूर्ण व्यक्तित्व,
सब के सब झिलमिला कर अपना अ-िस्थत्व खोते
सतह पर पानी के बुलबलें उठते और स्वत: बुझ जाते
कुशल बत्तखें वृत्ति वश
बार-बार गोते लगाकर ढूढ़तीं
अपनापन, उल्लास, आनन्द
कुछ भी हाथ नहीं आता
मुट्टी भर सिक्कों की खनक में गूंजते अपशब्द
गन्दे तालाब को झकझोर देते
बढ़ जाते मन के कोढ़ .....बुलबुलों की तरह
जोश का क्षणिक एहसास, पल भर में ही
आत्मा को धिक्कारती.....अन्त: तक
खाली बोतल सी लुढ़कती जिन्दगी,
भीगी रेत के दलदल मेंं धंसी....गरदन तक
मछलियां, बत्तखें व पेंढुकी आदि सब की सब शान्त!
अब शोर भी नहीं होता
मध्य रात्रि गुजर चुकी है
रह-रह कर रूदन करती
चौकीदार की सीटी......चींखती
.....जागते रहो, कि.........हम जिन्दा हैं.....!

के0पी0 सत्यम/ मौलिक व अप्रकाशित

Views: 577

Comment

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 30, 2015 at 9:41pm

आ0 गोपाल सर जी,  आपके अनुमोदन के लिये आपका आभार. सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 30, 2015 at 1:21pm

आ० केवल जी

बहुत ही सुन्दर रचना की है आपने . आपको बधाई . सादर .

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 29, 2015 at 9:17pm

आ0  कबीर भाईजी,  आपका आभार. सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 29, 2015 at 9:16pm

आ0  अमन भाईजी,  आपका आभार. सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 29, 2015 at 9:14pm

आ0  गनेश सरजी,   सादर प्रणाम!  आपका कथन पूर्ण सत्य है,  प्रारम्भ  में ऐसा ही किया था. किंतु गति व लय को ध्यान में रख  कर इस स्वरूप मे  रखना पडा.  फिर भी आपके सुझाव पर पुन: विचार करूंगा. आपके स्नेह के लिये आपका हार्दिक आभार. सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 29, 2015 at 9:04pm

आ0 वामनकर भाईजी, आपका आभार. सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 29, 2015 at 9:02pm

आ0 विजय भाईजी, आपका आभार. सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 29, 2015 at 9:02pm

आ0 श्याम नारायण भाईजी, आपका आभार. सादर

Comment by Samar kabeer on April 29, 2015 at 6:44pm
जनाब केवल प्रसाद जी,आदाब,सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें |
Comment by aman kumar on April 29, 2015 at 8:51am

बहुत सुंदर !

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