2122 2122 2122
शम्स तो है वो मगर डूबा हुआ है
रौशनी से बेख़बर डूबा हुआ है
अपने होने का उसे अहसास तो हो
क्यों ग़मों में इस कदर डूबा हुआ है
क्या अँधेरा मेरी नज़रों में है मौजूद
या अँधेरे में ये घर डूबा हुआ है
रौशनी के सिर्फ इक ज़र्रे के दम पर
ठण्ड से वो बेअसर डूबा हुआ है
इस जुनूने इश्क़ का होगा समर* क्या *नतीजा
सोच में कोई इधर डूबा हुआ है
फिर गुजश्ता वक्त के किस्सों में तू क्यों
आँसुओं से तर ब तर डूबा हुआ है
उसकी दुनिया तो किताबों की है दुनिया
वो झुकाये अपना सर डूबा हुआ है
मौलिक व् अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ सर रचना पर आपकी उपस्थिति उत्साह का कारण हुआ करती है आपका हार्दिक आभार स्नेह बनाये रखें
आदरणीय केवल प्रसाद जी आपका हार्दिक आभार
भाई कृष्ण मिश्रा जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय वीनस जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया, मिसरा सुधार दिया है :-)
आदरणीय मिथिलेश जी नवाज़िशों के लिये बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय गिरिराज सर रचना की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय डॉ विजय शंकर सर आपका तहेदिल से शुक्रिया
आदरणीय निलेश भैया आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय श्याम नारायण जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
क़ामयाब ग़ज़ल के लिए दिल से बधाइयाँ, शिज्जू भाई.. दिल से हुई इस ग़ज़ल को दिल से सुन गया
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