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गरीबी का फोड़ा (लघुकथा )

मजदूरी करके जितना भी कमाता , आधी से ज्यादा बेटे के पढ़ाई के लिये लगाता । पिता के फर्ज़ से वह उरिन होना चाहता था । गरीबी सदा जिंदगी को जटिल बनाने के लिये अपना मोर्चा संभाले रहती है । बेटे का मन आस पडोस के लडकों में रमा रहता । फिर भी पिता अपनी आस को रबड़ के भाँति खींच कर पकडे़ हुए था ... कि एकदिन बेटा बडा होकर उसका मर्म जान पायेगा । आज दसवीं का रिजल्ट आने वाला था । पूजा घर में माँ बेटे के लिए प्रार्थना में लगी रही सुबह से । रिजल्ट आते ही घर में सब जकड़न टुट गई । विजय ने अपनी हार का ठीकरा पिता के गरीबी पर जा फोड़ा था । गरीबी कलेजे पर फोड़े के मवाद की तरह बह निकली थी ।


कान्ता राॅय
भोपाल
मौलिक और अप्रकाशित

Views: 860

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Comment by मनोज अहसास on May 13, 2015 at 2:57pm
मै आपकी रचना की हृदय से बड़ाई करता हूँ
गरीबी में कोई हिस्सेदार नहीं होता
सादर
Comment by Mala Jha on May 13, 2015 at 1:26pm
बेहतरीन लघुकथा!बधाई स्वीकार करें कांता जी।
Comment by kanta roy on May 13, 2015 at 11:16am
आभार आपको हृदय तल से आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया जी ..... कथा के मर्म को बखूबी समझा आपने .... मेरा लिखना सार्थक हुआ ।
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 13, 2015 at 10:58am

अक्सर यही देखा है वो चाहे छात्र जीवन हो या गृहस्थ. माँ-पिता तो अपने बच्चों पर सब कुछ न्योछाबर कर ही देते है लेकिन समय पर असफलता का ठीकरा उन्ही के माथे पड़ता है. बहुत ही सुंदर विषय पर अच्छी लघुकथा प्रस्तुत की आपने ,आदरणीया कांता जी. बहुत-बहुत बधाई आपको

Comment by kanta roy on May 13, 2015 at 10:55am
आपको आभार आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी .... आपका उत्साह वर्धिन करना ही मुझे नई ऊर्जा प्रदान करता है । नमन
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 13, 2015 at 10:49am

बहुत सुंदर, सशक्त और मार्मिक लघु कथा रचने के लिए हार्दिक बधाई आद  कांता रॉय जी | सादर 

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